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खाए-पिए लोगों को
सूझती है धींगामस्ती,सैर-सपाटा,
नाच-गाना,हंसना-खिलखिलाना
और अपनी मस्ती में मस्त हो जाना।
दिहाड़ी मजदूरी कर
पेट पालने वाला शख्स,
थक-हारकर जब शाम को
घर लौटता है तो ६×८ की
सीलनभरी जर्जर झोपड़ी में,
लिपटी फटेहाल जिन्दगी ही
किसी स्वर्ग से कम नजर नहीं आती है।
नसीब सबका अपना-अपना है,
इससे भला कौन
इन्कार कर सकता है,
लेकिन जब सूरज की धूप,
चन्द्रमा की चांदनी,
वृक्षों की ताजी हवा
नदी का बहाव,राजा की इम्दाद
और प्रशासन की हमदर्दी,
कमजोर को छोड़ ताकतवर
की हमराह बनने पर आमादा
हो जाती है तब मुझे,
किसी षडयंत्र की बू और
ईश्वर के समदर्शी होने पर
शंका नजर आती है।
मैं विकास का विरोधी नहीं हूँ,
आधुनिक होने से भी
मुझे परहेज़ नहीं है,
अमीरों से भी कोई जलन नहीं है
मैं तो बस इतना चाहता हूँ कि,
हरेक को अपने-अपने
हिस्से का आकाश मिले,
महलों को अगर दूधिया
रोशनी मिले तो,
झोपड़ी को भी बिना
कतार गुजर-बसर
करने लायक प्रकाश मिले॥
#डॉ. देवेन्द्र जोशी
परिचय : डाॅ.देवेन्द्र जोशी गत 38 वर्षों से हिन्दी पत्रकार के साथ ही कविता, लेख,व्यंग्य और रिपोर्ताज आदि लिखने में सक्रिय हैं। कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित हुई है। लोकप्रिय हिन्दी लेखन इनका प्रिय शौक है। आप उज्जैन(मध्यप्रदेश ) में रहते हैं।
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