अब स्वर्ग सिधार चुके एक ऐसे जनप्रतिनिधि को जानता हूं,जो युवावस्था में किसी तरह जनता द्वारा चुन लिए गए तो मृत्युपर्यंत अपने पद पर कायम रहे। इसकी वजह उनकी लोकप्रियता व जनसमर्थन नहीं,बल्कि एक अभूतपूर्व तिकड़म थी। इसमें उनके परिवार के कुछ सदस्य शामिल होते थे। दरअसल उन साहब ने अपने घर में कृत्रिम विभीषण तैयार कर लिया था, जो पूरे पांच साल तक घूम-घूम कर अपने नेता भाई को कोसता रहता था। उस पर जनता के लिए कुछ न करने का आरोप लगाता रहता और चुनाव आने पर वह विभीषण घूम-घूमकर राजनीतिक दलों को चुनौती देता रहता कि यदि हिम्मत है तो मेरे भाई के खिलाफ मुझे टिकट दें,दूसरों में यह कुव्वत कहाँ, मैं उसे धूल चटा दूंगा, उसके नकारेपन को मैं जनता के समक्ष रखूंगा। कोई-न-कोई राजनीतिक दल उसके झांसे में आकर उसे टिकट थमा देता और बिल्कुल मैच फिक्सिंग की तरह वह विभीषण चुनाव तक विरोधियों का सारा गुड़- गोबर कर गायब हो जाता। चुनाव बाद कोई पूछता तो मासूम-सा जवाब देते हुए वह पूछने वालों पर ही फट पड़ता कि चुनाव के दौरान मुझ पर क्या- क्या बीती, आपको पता है?बड़ी मुश्किल से जान बच पाई। इस पर पूछने वाला चुप्पी साध जाता और रावण और विभीषण फिर से लोगों को बेवकूफ बनाने के नए खेल में जुट जाते। इस तरह उनका यह गेम प्लॉन उन नेता महोदय के जीवित रहने तक निर्बाध रूप से जारी रहा। लगता है कि, कुछ ऐसी ही स्ट्रेटेजी या गेम प्लॉन हमारे फिल्म वालों ने भी सीख लिया है। कोई नई फिल्म शुरू करते ही मंजे हुए निर्माता उसमें विवाद का तड़का लगाने के मौके तलाशने लगते हैं। चाहे बगैर जरूरत के फिल्म में पाकिस्तानी कलाकार को लेने का पासा हो,या फिल्म में कुछ ऐसा दिखाने का ,जो किसी वर्ग को नागवार गुजरे और इस पर बखेड़ा खड़ा हो जाए। जो काम लाखों-करोड़ों के खर्च वाले प्रमोशन से नहीं हो सकता,वह इस फंडे से चुटकियों में हो जाता है। अब तो आलम यह है कि,किसी नामी फिल्म निर्माता के बारे में यह सुनने को मिलता है कि वह कोई नई फिल्म बना रहा है तो मुझे अंदाजा हो जाता है कि जल्द ही वह कोई-न-कोई विवाद जरूर खड़ा करेगा। इन फिल्म वालों के बीच भी कमाल की केमिस्ट्री है। जैसे ही भड़काई गई आग के शोले इधर-उधर बिखरने लगते हैं,उसके दूसरे संगी-साथी मानो इसी इंतजार में बैठे मिलते हैं। फिर शुरू हो जाता है धड़ाधड़ ट्वीट पर ट्वीट का खेल.. फलां ने यह कहा और ढिमका ने यह। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला जैसे जुमले सुनना अब तो बोरिंग पैदा करने लगा है।मानो इनके लिए अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता को छोड़ दुनिया में और कोई समस्या ही नहीं है। विवाद भड़काकर अपनी तिजोरी भरने वालों की कारस्तानी कई साल पहले देखी गई उस फिल्म के भ्रष्ट राजनेता की तरह है,जिसे चुनाव में दोबारा जीतने का जब कोई उपाय नहीं सूझता तो वह अपनी ही पत्नी का चीरहरण करवा देता है। इससे उपजी सहानुभूति की लहर में सवार होकर वह बंदा फिर मुख्यमंत्री बन जाता है। युवावस्था में देखी गई उस फिल्म को लेकर तब मैं सोच में पड़ गया था कि, सचमुच क्या कोई ऐसा कर सकता है?, लेकिन इतने सालों बाद फिल्म वालों की कारस्तानी से लगता है बिल्कुल कर सकता है।दरअसल, ये फिल्म वाले अपनी तिजोरी भरने के लिए किसी का भी चरित्र हनन करने से बाज नहीं आते हैं, लेकिन उनकी इस कारस्तानी से बेवकूफ भी बेचारे दर्शक ही बनते हैं। यह एक तरह से अपराध ही है,जिस पर रोक लगाने के कठोर कदम अब उठने ही चाहिए।
#तारकेश कुमार ओझा
लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं