विश्व धरातल पर तुम,
मानवता का उदघोष कर दो।
सृजन के संसार में तुम,
अमिय की रस धार भर दो।
संसार सृष्टिकर्ता का,
स्वप्न है साकार,
गिरि भूमि सागर वन-उपवन रचे विविध
आकार।
चर अचर बहुजाति जीव,
सबमें सुन्दर तम मानव है
विकसित बुद्धि विवेकशील
कर्म पथ का साधक है।
कर्मभूमि यह विश्व उसकी,
उर में सुन्दरतम भाव भरदो॥
अद्भुत देवत्व का उसमें,
हुआ चरम विकास।
नित नए अनुसंधान कर,
छूने लगा आकाश।
किंतु उसकी बुद्धि को
जब रज तम ने आ घेरा,
भटका अपने श्रेय से
दानवता ने डाला डेरा।
उसके भ्रमित तममय हृदय में,
ज्ञान का प्रकाश भर दो॥
सृजनधर्मी मनुज की,
यह करारी हार है।
विध्वंस की भयावह राह में,
जीवन केवल भार है।
चल पड़ा इस राह पर
परिणाम की सोचे बिना,
उठी अन्तःप्रेरणा को
कर दिया था अनसुना।
राह से भटके हुए को
राजपथ सीधा दिखा दो,
जगे सुप्त विवेक समझे
स्थिति की विकरालता
हो सोच जनहित की सदा
विश्वजन की कुशलता
मानव से मानव जुड़ जाए,
वीणा में यह राग भर दो॥
विश्व धरातल के ऊपर,
मानवता का उदघोष कर दो।
सृजन के संसार में
अमिय की रसधार भर दो॥
परिचय: श्रीमती पुष्पा शर्मा की जन्म तिथि-२४ जुलाई १९४५ एवं जन्म स्थान-कुचामन सिटी (जिला-नागौर,राजस्थान) है। आपका वर्तमान निवास राजस्थान के शहर-अजमेर में है। शिक्षा-एम.ए. और बी.एड. है। कार्यक्षेत्र में आप राजस्थान के शिक्षा विभाग से हिन्दी विषय पढ़ाने वाली सेवानिवृत व्याख्याता हैं। फिलहाल सामाजिक क्षेत्र-अन्ध विद्यालय सहित बधिर विद्यालय आदि से जुड़कर कार्यरत हैं। दोहे,मुक्त पद और सामान्य गद्य आप लिखती हैं। आपकी लेखनशीलता का उद्देश्य-स्वान्तः सुखाय है।