चीन हमें आर्थिक और सामरिक मोर्चे पर ही मात देने की तैयारी नहीं कर रहा है बल्कि,सांस्कृतिक दृष्टि से भी वह हमें पटकनी मारने पर उतारु है। उसने चीनी स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए अब हिन्दी को अपना हथियार बना लिया है। इस समय चीन की २४ लाख जवानों की फौज में हजारों जवान ऐसे हैं,जो हिन्दी के कुछ वाक्य बोल सकते हैं और समझ भी सकते हैं। भारत-चीन सीमांत पर तैनात चीनी जवानों को हिन्दी इसलिए सिखाई जाती है कि,वे हमारे जवानों और नागरिकों से सीधे बात कर सकें। उनका हिन्दी-ज्ञान उन्हें जासूसी करने में भी जमकर मदद करता है। चीनी जवान भारतीय जवानों को हिन्दी में धमकाते हैं,चेतावनी देते हैं, गालियां काढ़ते हैं और पटाने का भी काम करते हैं। हमारे जवान तो क्या,फौजी अफसर भी उनके आगे बगलें झांकते हैं। उनके दुभाषिए दोनों फौजों के बीच संवाद करवाते हैं। चीनी के लगभग २० विश्वविद्यालयों में बाकायदा हिन्दी पढ़ाई जाती है। मैं चीन में ऐसे हिन्दी विद्वानों से भी मिला हूं,जो हिन्दी में पी.एच-डी. हैं और जिन्होंने हमारे अनेक शास्त्रीय और काव्य-ग्रंथों का चीनी अनुवाद किया है। मैं जब भी चीन जाता हूं,चीनी सरकार से मैं हमेशा हिन्दी-चीनी दुभाषिए की मांग करता हूं। जब प्रधानमंत्री नरसिंहराव चीन गए थे तो,मैंने एक मित्र हिन्दी प्राध्यापक को उनका दुभाषिया तय करवाया। था। भारत का दुर्भाग्य है कि,हमारे नेता भाषा के महत्व को नहीं समझते। वे अंग्रेजी को ही दुनिया की एकमात्र भाषा समझते हैं। वे भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बनकर अकड़ दिखाने लगते हैं,लेकिन उन्हें अंग्रेजी की गुलामी करते हुए शर्म नहीं आती है।
भारत में चीनी भाषा जानने वाले ५०० लोग भी नहीं हैं,इसीलिए हमारे व्यापारियों को चीन में हजारों रुपए रोज़ के दुभाषिए रखने पड़ते हैं। अंग्रेजी वहां किसी काम नहीं आती। हमारी कूटनीति भी कई देशों में अधकचरी रहती है,क्योंकि हमारे राजदूत उन देशों की भाषा ही नहीं जानते। हमारे ये अर्धशिक्षित नेता कब समझेंगे कि भारत को यदि हमें महाशक्ति बनाना है तो एक नहीं,अनेक विदेशी भाषाएं हमें नागरिकों को सिखानी होंगी और स्वभाषा को ही अपनी मुख्य भाषा बनानी होगी।
(आभार-वैश्विक हिन्दी सम्मेलन)