सूर्यास्त के समय वो गुनगुनाते हुए निकल जाता था।
शायद ही ऐसा होता की उसका पूरा खोमचा बेचा न गया हो।
आते वक्त साइकल की घंटी बजाता और जाते वक्त गुनगुनाता।
उसके जाने के कुछ पल के पश्चात पशुओं का आना होता वहां।
गांव से जाता था वही एक रास्ता उस कारखाने को।
जहाँ उस गांव के हर घर से था एक व्यक्ति काम करता।
रास्ता गुजर था घनी झाड़ियों से, एक जंगल ही था वहां पे।
जैसे ही लोग निकल जाते ख़ामोशी हो जाती,
तो फिर पशु निकलते बाहर घूमने को।
कारखाने से पहले ये उनका ही तो घर था ना ?
एक दिन मगर बंद हो गया वो कारखाना।
धीरे धीरे गांव के लोग भी छोड़ चले गांव को।
बस कुछ ही घर रह गए थे वहां, जो पीढ़ियों से रहते थे।
कारखाने की वजह से ख़त्म हो गया था पानी और हरियाली भी।
अपनी खूबसूरती गँवा चुकी थी वो जगह,
गाँव वालों के लिए भी वहा कुछ नहीं था।
पशुओं को भी मानो कुछ गलत,
कुछ अलग महसूस हो रहा था।
इसीलिए इंसान नहीं और पशु भी,
उस रास्ते से अब कोई नहीं गुजरता !!!
अद्वैत अविनाश सोवले (मराठी ‘सोवळे’)
पुणे, महाराष्ट्र