अपने अन्तः स्तल में दबाकर दर्द सारे,
आँचल से ढककर अपने बच्चे सारे।
वसु को अपनी प्यारी शैय्या बनाकर,
गगन को अपनी सुंदर रजाई बनाकर।
सुलाती है बच्चों को लोरियाँ गाकर,
थकती नहीं कभी बच्चों को दुलारकर।
कांटों की चुभन को सहती जो हँसकर,
अंगारों में कूद जाती बच्चों की खातिर।
माँ दुर्गा का रूप धारण करने वाली,
बच्चों के लिये बन जाती महाकाली।
भूखी रहकर बच्चों का पेट भरने वाली,
सहनशीलता, संवेदनशीलता वाली।
ऐसी माँ के लिये क्या इक दिवस है,
पूजने के लिये उसे बस इक दिवस है!
रखती नौ माह गर्भ में जो बच्चे को,
भयंकर प्रसव पीड़ा सहन करती जो।
हर ख़ुशी कर देती न्यौछावर जो,
बच्चा कुछ बने ख्वाहिश रखती जो।
ख़ुद को मिटाकर वात्सल्य लुटाती जो,
बांहों में लेकर आनंदित करती जो।
उस माँ के लिये इक दिवस ख़ास हो,
केवल इक दिवस ही ख़ास हो!
कैसी यह विडम्बना है?
माँ! तुम तो हर पल, हर क्षण में ख़ास हो,
जीवन की तुम ही तो इक आस हो।
माँ! तुम जीवन दायिनी हो,
माँ! तुम कष्टनिवारिणी हो।
शत–शत नमन, लख–लख नमन,
खिलता रहे तुम्हारा ये गुलशन।
#श्रीमती प्रेम मंगल
राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य
मातृभाषा उन्नयन संस्थान, भारत