-संदीप सृजन
जितना भुलाना चाहें भुलाया न जायेगा
दिल से किसी की याद का साया न जायेगा
इस संजीदा अशआर को कहने वाले डॉ दरवेश भारती जी 3 मई 2021 को दुनिया को अलविदा कह गये। लेकिन जो काम हिंदी, उर्दू साहित्य के लिए वे कर गये है वह आने वाले कई सालों तक उनको ज़मीन पर जिंदा रखेगा। ग़ज़ल के चाहने वालों और नये ग़ज़लकारों के लिए के लिए वर्तमान समय में वे एक सरस्वती के द्वारा भेजे किसी दूत से कम नहीं थे। वे ग़ज़ल के चलते-फिरते विश्वविद्यालय थे। जो बगैर किसी से कुछ चाह रखे नये ग़ज़ल कहने वालों के लिए मार्गदर्शन दे रहे थे। जिस समय मोबाइल और इंटरनेट जैसी कोई आधुनिक सुविधा नहीं थी, तब वे पत्रों के माध्यम से अपनी जेब से डाक टिकट का खर्च उठाकर अच्छे लिखने वालों को मार्गदर्शन देते और प्रोत्साहन दे कर ग़ज़ल की बारिकियों से रूबरू करवाते थे। “ग़ज़ल के बहाने” और “ग़ज़ल परामर्श” का निःशुल्क प्रकाशन और हजारों कलमकारों तक इनका वितरण करना वह भी उम्र के अंतिम समय तक। ये ज़ज्बा उनसे ग़ज़ल सीखने वालों को सदैव उनके दिलों में जिंदा रखेगा।
हमेशा दिल खोल कर हंसने वाले और मिलनसार स्वभाव के धनी दरवेश भारती जी का जन्म: 23 अक्तूबर, 1937 को झंग (अब पाकिस्तान) में हुआ था। 1947 के विभाजन के दौरान इनका परिवार भारत आ गया था। बहुत कम लोग जानते है कि उनका मूल नाम ‘डॉ हरिवंश अनेजा’ था। अपने उपनाम “दरवेश भारती” के नाम से साहित्य की दुनिया में विख्यात हुए कि मूल नाम जैसे गायब ही हो गया। दरवेश जी संस्कृत में पीएच. डी. थे। संस्कृत, हिन्दी और उर्दू पर समान अधिकार रखते थे। दरवेश जी 1964 से “जमाल काइमी” उपनाम से अपनी रचना लिखते थे। दो संकलन भी उनके प्रकाशित हो चुके थे। पर लगभग तीस सालों तक उन्होंने अपना लेखन रोके रखा और 2001 में पुनः सक्रिय लेखन में उतरे। 2007 से उन्होंने “दरवेश भारती” के नाम से ग़ज़लें कही और इस नाम से उन्हें काफी प्रसिद्धी भी मिली। उनकी प्रमुख कृतियाँ ’रौशनी का सफ़र’ व ‘अहसास की लौ’ (दोनों ग़ज़ल संग्रह:) तथा “इंद्रधनुष अनुभूतियों के” (कविता संग्रह) जो बेहद लोकप्रिय रही। 2008 से 2021 तक “ग़ज़ल के बहाने” और “ग़ज़ल परामर्श” पत्रिकाओं के सम्पादक के तौर पर उन्होंने लम्बी पारी खेली। और जो कुछ इन पत्रिकाओं के माध्यम से साहित्य जगत को दिया है। वह भविष्य के लिए मील का पत्थर है।
दरवेश जी की गिनती देश के उस्ताद शायरों में होती है। वे परम्परागत और नयी शायरी के समन्वयक थे। उनका लेखन अधिकांश व्यंजना में रहा। पर वे अभिधा और लक्षणा में भी बहुत सुंदर तरीके से शेर कहते थे। उनके कुछ शेर जो लोगों की जुबान पर है-
बनकर मिटना, मिटकर बनना, युग-युग से है ये जारी
मर्म यही तो समझाते हैं, ये दीवारों के साये
फ़ना क्या है समझना हो जो ‘दरवेश’
उठो, और दाव पर खुद को लगाओ
वर्तमान समय की त्रासदियों पर राजनीति पर उनने जब कलम चलाई तो वे दुष्यंत कुमार के साथ नजर आए। उन्होंने खुलकर व्यवस्था की बदहाली पर प्रहार किया तो राजनेताओं के दो टूक कहने से नहीं चुके।
जो रेंग-रेंग के मक़सद की सिम्त बढ़ती हो
उसी को मुल्क की इक ख़ास योजना कहिये
ली थी शपथ तो मुल्क़ की ख़िदमत के वास्ते
क्या कर रहा है अपनी अना के जगा के देख
जो लोग ग़ज़ल की दुनिया से तआलुख रखते है वे जानते है कि कितने विवाद और विचार ग़ज़ल से जुड़े है। लेकिन ग़ज़ल है कि हर विवाद पर फतेह हासिल कर आगे बढ़ती जा रही है। डॉ दरवेश भारती जिनको ग़ज़ल का विश्वविद्यालय माना जाता रहा उन्होंने अपने कहन से कईं नये मुहावरे गढ़े। व्यंग्य के प्रयोग करके केवल चोट ही नहीं मारी वरन सहलाया भी और भौचक्का भी कर दिया। उनकी ग़ज़लों की यह विशेषता रही कि वे हिन्दुस्तानी जुबान में ही अपनी बात कहते थे। वे संस्कृत में पीएच.डी. थे पर हिंदी और उर्दू के लिए उन्होंने तन,मन धन सब लगा रखा था। किसी एक भाषा में बंधकर वे नहीं रहे। पर अरुज (छंद) के सदैव पक्षधर रहे। वे ग़ज़ल में आ गई विकृतियों के सख्त खिलाफ थे। यही वजह रही की ग़ज़ल के बहाने का प्रकाशन ,संपादन उन्होंने किया और मुफ्त में लेखकों कवियों और शायरों के भेजी ताकि ग़ज़ल का भविष्य न बिगड़े और लेखक छंद से दूर न हो। ये उनका जुनुन था जो आखरी समय तक जिंदा रहा।
हमारा यह सौभाग्य रहा कि वर्ष 2016 में उज्जैन में हमारी संस्था शब्द प्रवाह और संवाद द्वारा आयोजित साहित्य कुंभ में डॉ दरवेश भारती पधारे और उन्हें श्रीमती सरस्वतीसिंह स्मृति साहित्य सेवा सम्मान से हमें सम्मानित करने का अवसर मिला। उस दौरान उज्जैन व आसपास के क्षेत्रों में कईं गोष्टियां उनके सम्मान में हुई। आज डॉ दरवेश भारती हमारे बीच अपने भौतिक शरीर से भले ही नहीं है। पर अपने कार्यों के माध्यम से सदैव जिवित रहेगे। उनकी स्मृति सदैव बनी रहेगी। विनम्र श्रद्धांजलि…. सादर नमन।
संदीप सृजन
उज्जैन