दरवाजे की घंटी ने गायत्री मंत्र के मधुर घ्वनि से सारे घर को गुंजायमान कर दिया था । यह घंटी अब कभी-कभी ही बजती है पर जब बजती है तो सारे घर को देवालय बना देती है । मैंने बड़ी ही उत्सुकता से दरवाजा खोला था । दरवाजा खोलते ही एक सूटबूट धारी युवक पर निगाह पड़ते ही आंखों में अपने आप प्रष्नवाचक चिन्ह उभर आया था । मुझे लगा था कि इसने या तो गलत घर का दरवाजा खटखटा दिया है अथवा किसी का पता पूछना चाहता है । सौरभ को मैं नहीं पहचानता था । जब उसने मेरे पैर छूकर बताया कि वह सुधा का बेटा है तब याददाष्त के धुंधले पड़ चुके पन्ने यकायक पलटने लगे । सुधा……..ओ…..ह वह जांबांज लड़की जिसने एक झटके में ही आपने माता-पिता का घर केवल इसलिए त्याग दिया था कि वो किसी के साथ अन्याय कर रहे थे । वैसे तो मैं उनको पहिचानता ही नहीं था, वो तो उस दिन वे कचहरी आए थे कार्ट मेरिज का आवेदन देने तब मैं जाना था पहली बार उनको ।
‘‘सर…..मैं और ये कोर्ट मैरिज करना चाहते हैं’’
म्ेारा ध्यान उसके साथ खड़े एक लड़के की ओर गया । सामान्य सी कद काठी का दुबला-पतला लड़का वैशाखियों के सहारे खड़ा था, उसके चेहरे पर उदासी साफ झलक रही थी । मुझे आष्चर्य हुआ था इतनी खूसूरत लड़की कैसे इस लड़के को पसंद कर सकती है और विवाह कर सकती है । मैने आवेदन पत्र को गौर से पढ़ा
नाम- कु. सुधा
पिता का नाम – श्री रामलाल
शिक्षा- पोस्ट ग्रेजुएशन
लड़के का नाम- गौरव
पिता का नाम- स्व. श्री गिरजाशंकर
शिक्षा-बी.ए.
मेरी निगाह एक बार फिर दोनों की तरफ घूम गई थीं ।
‘‘सर…….आवेदन मंे कुछ रह गया है क्या…..अंक सूची लगी है, मेरी उम्र 18 वर्ष से अधिक है और इनकी उम्र 21 वर्ष हो चुकी है’’
मैंने अपनी निगाहों को उनसे हटा लिया था ।
‘‘नहीं…….आवेदन तो ठीक है…….पर क्या माता-पिता की स्वीकृति है’’
‘‘जी……….नहीं……….तभी तो कोर्ट मेरिज कर रहे हैं, वैसे हम बालिग हैं और अपनी पंसद से विवाह कर सकते हैं………’’ सुधा ने जबाब दिया । लड़का मौन था, उसने अभी तक एक शब्द भी नहीं बोला था ।
‘‘ठीक है……आप 15 दिन बाद आइये .हम नोटिस चस्पा करेगें और फिर आपको विवाह की तारीख बतायेगें’’ । दरअसल मैं चाहता था कि लड़की को कुछ दिन और सोचने का अवसर मिले कहीं वह जल्दबाजी में या भावावेश में तो शादी नहीं कर रही है ।
लड़की को लेकर मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी । लड़की भले घर कर लग रही थी और खूबसूरत भी थी लड़का किसी भी कोण से उसके लायक नहीं लग रहा था । शुरू में तो मुझे लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि लड़का किसी तरह से उसे ब्लेकमेल कर रहा हो इस कारण से वह विवाह करने को मजबूर हो रही हो । मैंने छानबीन कराने का निर्णय कर लिया था ।
सुधा के पिता का बड़ा करोबार था । शहर में उनका सम्मान भी बहुत था । सुधा उनकी इकलौती संतान थी जो लाड़-प्यार में पली थी । वैसे तो सुधा धीर-गंभीर लड़की थी, उसके बारे में एक भी ऐसी बात सामने नहीं आई थी जिसके बलबूते पर उस पर कोई आरोप लगाया जा सके । गौरव सुधा के पिताजी की दुकान में काम करता था । वह गरीब परिवार से था पर सज्जन था । उसकी माॅ ने मेहनत मजदूरी कर के उसे पाला और पढ़ाया था । माॅ बूढ़ी हो चुकी थी इस कारण गौरव को पढ़ाई बीच में ही छोड़कर काम पर लग जाना पड़ा । वह सुधा के पिताजी के यहां काम करने लगा । उसकी मेहनत और ईमादार को देखते हुए एक दिन सेठ जी ने उसे मेनेजर बना दिया । वह सेठजी का पूरा व्यवसाय संभालने लगा । गौरव की शालीनता और समर्पण से सारा परिवार उससे प्रसन्न था । इसी दौरान सुधा का परिचय गौरव से हुआ । सुधा भी गौरव से बेहद प्रभावित हुई । दोनो हम उम्र थे इस कारण प्रगाढ़ता बढ़ती चली गई । इसके बाबजूद उनके बीच में ऐसा कोई संबंधों का अनुबंध नहीं था जिसे सामाजिक तौर से गलत माना जा सके । कहने को तो वे आपस में मित्र भी नहीं थे । हाॅ गाहे-बेगाहे दोनों का आमना-सामना हो जाता और वे हलो-हाय की औपचारिकता निभा लेते ।
गौरव ने अपनी पारिवारिक परेशानियों की वजह से पढ़ाई भले ही छोड़ दी हो पर वह समय निकालकर पढ़ने और लिखने के अपने शौक को पूरा करता रहता था । सेठजी के काम से उसे जरा सी भी फुरसत मिलती वह या तो लिखने बैठ जाता या पढ़ने । अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए वह अक्सर कविता लिखा करता, जिसमें उसकी पीड़ा साफ दृष्टित होती । सुधा उसे अक्सर पढ़ती और लिखती देखती थी । वह उसकी पीड़ा को महसूस करने लगी थी । सुधा पोस्ट ग्रजेएशन के अंतिम वर्ष में थी, वह कभी-कभार गौरव से विषय पर चर्चा करने लगी वह जानती थी कि गौरव ने भले ही पोस्ट ग्रजेएषन न किया हो पर उसका नालेज उसके पास पर्याप्त था ।
गौरव की माॅ की बीमारी ठीक नहीं हो रही थी । गौरव के वेतन का बड़ा हिस्सा माॅ की दवाईयों पर ही खर्च हो जाता था । पर उसे सुकून था कि वह माॅ की सेवा कर रहा है । माॅ ने उसे जिस तरह अभावों के बाबजूद पढ़ाया और उसकी जरूरतों की पूर्ति की थी वह सब उसकी आंखों के सामने चलचित्र की भांति नजर आता रहता था । गौरव माॅ को प्रसन्न देखना चाहता था, पर माॅ की बीमारी ने माॅ की आंखों से उम्मीद की किरणें छीन लीं थीं । माॅ को इस बात का भी दुःख रहता था कि वह गौरव को ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं पाई थी ।
सुधा गौरव की परिस्थितियों को इतना बेहतर तो नहीं जानती थी पर माॅ की बीमारी और आर्थिक तंगी को वह समझने लगी थी । उसके मन में गौरव के प्रति आदर के भाव मजबूत होते जा रहे थे । तभी गोरव के साथ घटे दर्दनाक हादसे ने उसे गौरव के और समीप ला दिया था । सेठ जी की गोदाम में रखे समान लोहे की राड उसके पैरों को छलनी करती हुई आरपार निकल गई थी जब वह माल का निरीक्षण कर रहा था । उसे तत्काल अस्पताल ले जाया गया परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी । डाक्टरों को उसका एक पैर काट देना पड़ा था । गौरव विकलांग हो चुका था । विकलांग गौरव अब सेठजी के किसी काम का नहीं रहा था इसलिए सेठजी ने गोरव का उपचार तो पूरा कराया पर इसके बाद उसे काम पर आने से मना कर दिया ।
अपने पिताजी के इस व्यवहार से सुधा खिन्न थी । वह गौरव की परिस्थितियों के बारे में जानती थी, उसे अहसास था कि बीमार माॅ और अपंग गौरव के सामने दो जून की रोटी का संकट पैदा हो गया है । गौरव का एक्सीडेन्ट न केवल उनके यहां काम करने के दौरान हुआ बल्कि उनकी ही लापरवाही से हुआ ऐसे में उसकी सजा भी गौरव को ही मिले यह कहां का लापरवाही से हुआ ऐसे में उसकी सजा भी गौरव को ही मिले यह कहां का न्याय है । वैसे भी वह सिर्फ अपंग ही हुआ है वह रोकड़-बही का काम तो कर ही सकता है । उसने अपने पिताजी को यह समझाने का प्रयास भी किया था पर वे मानने को तैयार नहीं थे
‘‘देखो बेटा हम बैठे बिठाये किसी को वेतन नहीं दे सकते’’
‘‘पर वो आपकी रोकड़-बही का काम करेगा न, पहले भी वह यही काम करता था आप स्वंय उसके काम की तारीफ करते थे’’ उसने अपने पिताजी को समझाने का प्रयास किया ।
‘‘रोकड़-बही का काम कितनी देर का रहता है……बाकी दिनभर तो वह बेकार ही रहेगा न, पहले वह इस काम के अलावा बैंक जाने से लेकर गोदाम तक का काम कर लेता था, पर अब तो वह यह भी नहीं कर पायेगा’’ सेठ जी मानने को तैयार नहीं थे । दरअसल सेठ जी शोषक समाज का प्रतिनिधत्व करते थे वे चाहते थे कि उनसे सौ रूप्या लेने वाला कर्मचारी उनके लिए दो सौ रूपये का काम करे । सुधा नये समाज में जी रही थी वह शोषक और शोषित के बीच की खाई को पाटना वाहती थी ‘‘जितना दाम, उतना काम’’ । सेठ जी को मानने को तैयार नहीं थे ऐसे में उसके पास एक अंतिम हथियार बचा था अपने पिता को धमकी देने का
‘‘पिताजी……यदि आपने गौरव को काम पर नहीं रखा तो मैं भी इस घर में नहीं रहूंगीं ………….’’ ।
‘‘ठीक है बेटी……………..तुम्हारी …….मर्जी ।’’ पिताजी ने साधारण सी प्रतिक्रिया देकर बात को खत्म कर दिया था । वे इसे सुधा का बचपना ही मानकर चल रहे थे । सुधा स्वाभिमानी लड़की थी, उसे अपने पिता से इस तरह के उत्तर की उम्मीद नहीं थी । यह सही था कि उसके मन में गौरव के प्रति हमदर्दी थी और उसके नम्र व्यवहार के कारण आकर्षण भी था, पर उसने यह कभी स्वपन में भी नहीं सोचा था कि वह गौरव के साथ किसी रिष्ते में बंधेगी ।
माॅ दुःखी थीं । उन्होने उसे रोका भी था, पर वे अपनी बेटी के स्वभाव से परिचित थीं इस कारण उन्होने उसे जाने दिया । पिताजी मूक दर्षक ही बने रहे
‘‘यह मत समझना बेटी की मैं किसी फिल्मी पिता की तरह तुम्हें समझा बुझाकर वापिस लाने का प्रयास करूंगा……..वैसे भी तुम बालिग हो और अपना निर्णय खुद ले सकती हो…….’’ पिताजी की आवाज में सहजता ही थी । गौरव की माॅ जरूर घबरा गई थीं । ,‘‘नहीं…….बेटी………मैं तुम्हे घर पर नहीं रख सकती, हम तो पहले से ही इतने परेशान है, तुम क्यों हमारी परेशानी बढ़ाना चाहती हो…………’’ फफक फफक कर रो पड़ी थीं गौरव की माॅ । वह माॅ की लाचारी को अच्छी तरह से समझ रही थी वह यह भी समझ रही थी कि गौरव अैर उनकी माॅ को ‘‘सेठ जी कहीं बदला न लें’’ की कल्पना से भी भय सता रहा था ।
‘‘माॅ…….मैं ता अब आ ही चुकी हूॅ…….अब वापिस तो जाने से रही………इसलिए आप ……….परेषान न हों……….मैं सब सम्भाल लूंगीं……..अपने पिताजी को भी…।’’
सारा परिवार बहुत दिनों तक संशकित रहा आया । सुधा ने परिवार को तो वाकई सम्हाल लिया था । माॅ की पूरी सेवा करती और गौरव का भी ध्यान रखती । उसने गौरव के लिए कुछ ट्यूषन ढूंढ लीं थी, गौरव घर में रह कर बच्चों को पढ़ाता रहता और वह एक स्कूल में शिक्षक बन गई थी । एक दिन वो ही गौरव को लेकर गई थी कचहरी ताकि कोर्ट मैरिज का आवेदन दे सके । यूं बगैर शादी किये वह कब तक इस परिवार में रह सकती थी ।
सुधा और गौरव की पूरी कहानी का पता चलने के बाद मैंने दोनों की मदद करने का निर्णय ले लिया था । दोनों की कोर्ट मैरिज हो गई थी । गौरव को मैंने ही कचहरी में काम पर लगा लिया था । सुधा का मन स्कूल संचालन में ज्यादा था सो मैंने अपने माध्यमों का उपयोग कर उसको स्कूल खोलने की अनुमति दिला दी थी साथ ही अपने परिचितों से उस स्कूल में अपने बच्चों को प्रवेश दिलाने का भी कह दिया था । सुधा का स्कूल खुल चुका था । दो कमरे से शुरू हुआ उसका स्कूल शनैः-षनैः बड़ा होता जा रहा था । सौरभ का जब जन्म हुआ तब तक सुधा का स्कूल शहर के नामी स्कूलों में गिना जाने लगा था । रिटायर्डमेन्ट के बाद में तो अपने पैतृक शहर आ गया था इस कारण फिर न तो सुधा से कभी मुलकात हो सकी और न ही सौरभ के बारे में जान सका । आज जब सौरभ को यू सामने देखा तो पहचान ही नहीं पाया ।
‘‘मैं सौरभ मेरी माॅ सुधा और पिताजी गौरव………..उन्होने ने मुझसे बोला था कि मैं आपसे आशीर्वाद लेकर आऊॅं ’’ ।
‘‘ओ…………ह…………..अच्छा…………….कैसे हैं दोनों ……’’
मेरे सामने अतीत के पन्ने खुलते चले गए थे, एक एक चेहरा सामने आता जा रहा था मानो मैं अतीत का चलचित्र जीवंत देख रहा हूं ।
‘‘पिताजी तहसीलदार बन गए हें………उन्होने यह बताने को जरूर बोला था’’
‘‘ओ….ह…अच्छा पर वो तो रीडर थे…..मैंने ही उन्हें नियुक्त किया था.’’
’मुझे वाकई आश्चर्य हो रहा था ।
‘‘जी……..इसलिए तो उन्होने मुझे आपको बताने का बोला था…….उन्होने विभागीय परीक्षा दी थी…………उसमें वो पास हो गए थे और नायब तहसीलदार बना दिए गए थे……..बाद में उनका प्रमोशन हो गया और वो तहसीलदार बन गए हेंै…….।’’ सौरभ सब कुछ पूरे सत्साह के साथ बताता चला जा रहा था ।
‘‘अ……च्छा…….और सुधा का स्कूल…….’’
‘‘ मम्मी का स्कूल………अभी चल रहा है……..करीब चार एकड़ में नई बिल्डिंग बन गई है और दो हजार से अधिक विद्यार्थी पढ़ रहे हैं…’’ ।
मैं प्रसन्नता का अनुभव कर रहा था जो मात्र दिखावा नहीं थी । सुधा और गौरव ने शुन्य से शुरूआत की थी और आज उंचाईयों पर पहुंच गए थे , मुझे प्रसन्नता इस बात की भी थी कि इस सब में मेरा भी कुछ न कुछ योगदान अवश्य था । अपने ही लगाये पौधे को जब माली फलता-फूलता देखता है तो उसे प्रसन्नता तो होती ही है । अच्छी बात यह भी थी कि गौरव और सुधा उसे अभी भूले भी नहीं थे जबकि जाने कितना समय गुजर चुका है । मैंने सौरभ को गले से लगा लिया था ।
‘‘और बेटा…………तुम क्या…….कर रहे हो’’
‘‘जी……..मेरा अभी-अभी आय.ए.एस. में चयन हुआ है……..मेरी ट्रेनिंग हेंै……पर माॅ ने कहा था कि टेªनिंग में जाने के पहिले आपका आशीर्वाद जरूर लेकर आऊं’’
उसने झुक कर मेरे पैरों पर अपना माथा रख दिया था ।
‘‘मैं जानता हूॅ अंकल की आपने मेरे परिवार को इस मुकाम तक पहुंचाने में कितना सहयोग दिया है माू ने मुझे सब कुछ बताया है……यदि उस समय आप उनका साथ नहीं देते तो ……….शायद……….’’ उसकी आंखों में आंसू डबडबा आये थे । मैने उसे एक बार फिर सीने से लगा लिया था ।
कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
नरसिंहपुर म.प्र.