श्री नरेन्द्र मोदी जी को खुला पत्र। भारतीय भाषाओं, विशेषकर हिन्दी पर सरकार द्वारा विशेष ध्यान देने का आग्रह

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माननीय श्री नरेन्द्र मोदी जी

विषय: भारतीय भाषाओं, विशेषकर हिन्दी पर सरकार द्वारा विशेष ध्यान देने का आग्रह।

( यह पत्र प्रधानमंत्री भारत सरकार के स्थान पर आपको सम्बोधित करने के पीछे विशेष कारण यह है, कि प्रधानमंत्री पद की अपनी विवशताएँ होती और एक स्वतंत्र नागरिक के रूप में आप स्व-विवेकानुसार आमजन के भावों पर अपनी प्रतिक्रिया दे सकते हैं।)

मान्यवर
हिन्दी को भारत-सरकार ने राजभाषा घोषित किया है और देश की कई राज्य-सरकारों ने भी।दुर्भाग्यवश आज़ादी के 73 वर्ष की यात्रा तय करने के बाद भी यह उपेक्षित है और इसके नाम पर राजनीति ज़ारी है।अगर विरोध राज्यों की स्थानीय भाषाओं और हिन्दी के बीच होता तो हम इसे स्थानीय भावनाओं की अभिव्यक्ति के नाम पर न्यायसंगत कह सकते थे,पर आश्चर्य यह है कि हिन्दी को अपमानित कर अंग्रेजी को और अधिक पुष्ट और प्रचलित किया जा रहा है जो सही माने में अंग्रेजी के लिये राजनीतिक प्रश्रय का एक तरीका है।जब-जब हिन्दी के पक्ष में कोई आवाज़ उठती है,उसे कुछ निहित स्वार्थी तत्व जो हर दल में हैं,दबाने का हरसंभव प्रयास करते हैं और परिणामतः अंग्रेजी का साम्राज्य बढ़ता चला जाता है।

महोदय
कहने को तो देश में राजभाषा नीति और कानून सब हैं। अखिल भारतीय स्तर पर राजभाषा विभाग का प्रतिनिधित्व भी है। दोनों सम्माननीय सदनों के सदस्यों की संसदीय समितियां भी हैं,जिसमें देश के सभी क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व होता है। हर मंत्रालय में हिन्दी सलाहकार समिति भी है। संसदीय समितियां निरीक्षण भी करती हैं और सरकारी संस्थाओं और कार्यालयों को हिन्दी में काम न करने के लिये हड़काती भी हैं। दुर्भाग्यवश राजभाषा सम्बंधित कानूनी प्रावधान आज भी अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाए हैं। इसके अलावा जो माननीय सांसद इन समितियों के सदस्य हैं,क्या समितियों द्वारा निरीक्षण के दौरान शत-प्रतिशत उपलब्ध रहते हैं? यह बड़ा यक्ष प्रश्न है। साथ ही संसद के दोनों सदनों में राजभाषा के संबंध में सार्थक और गंभीर चर्चा हुई हो, ऐसा अनुभव कभी भी नहीं हुआ। राजभाषा से जुड़ा कर्मचारी वर्ग कितना प्रेरित और प्रोत्साहित है, अगर सर्वेक्षण किया जाय तो निराशाजनक परिणाम ही मिलेंगे। संसद और सम्माननीय सांसद स्थानीय भाषाओं विशेषकर हिन्दी के प्रति अन्यमनस्क बने रहेंगे और समय-समय पर विरोध की राजनीति करते रहेंगे तो संसदीय समितियों के गठन की गंभीरता पर प्रश्नचिह्न लगते रहेंगे। सलाहकार समितियों द्वारा कोई ठोस पहल आज तक हुई हो, यह कम से कम जन-संज्ञान में तो नहीं है। अतः अनुरोध है कि इस दिशा में गंभीर पहल हो, ताकि इन समितियों के प्रति डर कम हो और उनका आदर बढ़े।

महोदय
सरकारी कार्यालयों में राजभाषा कार्यान्वयन का दायित्व गृह मंत्रालय के अधीन है और शिक्षा में भाषाओं को समुचित स्थान दिलवाने का दायित्व शिक्षा मंत्रालय देखता है।प्रसंगवश नई शिक्षा नीति में भाषा के प्रति जो पहल करनेवाले सुझाव हैं,उन पर विरोधियों के पूर्वाग्रह पहले ही सामने आ चुके हैं।क्या हम एक समग्र नीति जो सभी वर्गों को मान्य हो,बनाने में अक्षम हैं?दुर्भाग्यवश जब भी हिन्दी का विरोध होता है,अंग्रेजी और अधिक आगे बढ़ती है।हम अंग्रेजी के विरोधी नहीं हैं,पर उसके कारण हमारी अपनी भाषाएं समाप्त हो रही हैं और साथ ही संस्कृति पर भी आक्रमण हो रहा है,जो देश की अपनी विशेष पहचान के हित में नहीं है।नई शिक्षा नीति को लागू करते वक्त भाषाओं के मसले पर सभी सम्बंधित हितधारकों को एक साथ ला सकें तो यह सराहनीय उपलब्धि होगी।गृह मंत्रालय और शिक्षा मंत्रालय के बीच उक्त संदर्भ में आपसी संवाद और साझा रणनीति के बारे में जनता को भी शामिल करेंगे तो परिणाम बेहतर हो सकते हैं,कृपया सुझाव स्वीकार करें।

आदरणीय
अंग्रेजी के कारण रोजगार की संभावनाएं ज्यादा होने और उसका फायदा एक विशेष वर्ग व कुछ राज्यों के वासियों को आनुपातिक रूप में अधिक मिलने के कारण हिन्दीभाषी राज्य भी अंग्रेजी के पक्ष में झुकाव दिखाने लगे हैं। चूंकि वे यह मानते हैं कि हिन्दी के कारण नौकरियों में प्राथमिकता तो मिलेगी नहीं और अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित लोग आगे बढ़ जायेंगे,अतः हरियाणा,राजस्थान जैसे राज्यों में सरकारी विद्यालय अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा प्रदान करेंगे, ऐसा वहां की सरकारों ने निर्णय लिया है। ऐसे में अभिभावकों का झुकाव भी सरकारी निर्णयों की दिशा में ही होना स्वाभाविक है ,चूंकि अगर बच्चों का भविष्य अंग्रेजी माध्यम में ही है , तो क्यों अपनी भाषा सीखी जाय? यह हिन्दी और हमारी देशी भाषाओं पर सबसे बड़ा आक्रमण है और अत्यंत ही खेदजनक फैसला है। अगर हम भारतीय भाषाओं में शिक्षाप्राप्त बच्चों के लिए समुचित संख्या में काम करने के अवसर पैदा करने में अक्षम हैं तो क्यों उन्हें इस सच से अवगत कराते? यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है ,चूंकि गांवों के अधिकांश बच्चे मुख्यधारा वाले कार्यक्षेत्रों से वंचित हैं जिसके कारण उनमें विक्षोभ उभर रहा है।ऐसे में सरकार को उन्हें विश्वास में लेना चाहिए और धरातल पर ऐसे निर्णय साकार करने चाहिए जिनसे उन्हें लगे कि सरकार उनके हितों के प्रति गंभीर है।

वरिष्ठ स्तर पर परीक्षा और साक्षात्कार के लिए भाषाओं के चयन की सुविधा सरकार ने दी है। लेकिन सही अनुवाद की कमी के कारण प्रत्याशियों को परीक्षाओं में परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इसका सबसे बड़ा कारण है “प्रश्नपत्र मूल रूप से अंग्रेजी में बनता है,जिसे अनुवादित करवा के भाषाओं के प्रति सरकारी आदेशों के पालन की औपचारिकता पूरी की जाती है।” चूंकि कभी-कभी अनुवादक ,तकनीकी और संबंधित अंग्रेजी शब्दों के भावों से अनभिज्ञ होते हैं,अतः ऐसी ग़लतियों की संभावना बनी रहती है।अगर प्रश्न गढ़ने वाले जो मूल स्थानीय भाषा में पढ़े हुए हों , वे प्रश्नपत्र बनायेंगे तो इस तरह की कमज़ोरियों को संभाल सकते हैं और देशी भाषाओं में पढ़ाई किये हुए अभ्यर्थियों के लिए मार्ग सुगम हो सकता है।साथ ही साक्षात्कार में बैठने वाले सभी अधिकारी, प्रतियोगी की भाषा और संस्कृति से जुड़े हुए होंगे तो स्थानीय भाषाओं में परीक्षा और साक्षात्कार देने वाले अभ्यर्थी सहज अनुभव करेंगे।

अंग्रेजी में प्रवीण प्रत्याशियों को अप्रत्यक्ष रूप से यहां प्राथमिकता मिल जाती है।अगर स्थानीय भाषाओं में पढ़े हुए और उनमें परीक्षा और साक्षात्कार देनेवाले प्रत्याशियों को अलग से कुछ प्रतिशत अंक देने के अलावा उक्त सुझाव लागू करेंगे तो अनेक प्रतिभाशाली युवाओं को देशसेवा करने का अवसर मिलेगा।निजी संस्थानों के लिये भी स्थानीय भाषाओं में शिक्षित युवाओं को अवसर देने हेतु कानूनी रूप से लक्ष्य निर्धारित करेंगे तो ऐसी पहल से अनेक परिवार लाभान्वित होंगे।

मान्यवर
विदेशी प्रतिनिधि भारत में आते हैं या हमारे प्रतिनिधि विदेश जाते हैं,तो अनेक देशों के प्रतिनिधि अपने देश की भाषा में संवाद करते हैं और हम उनकी कही गई बातों और हमारी प्रतिक्रिया का अंग्रेजी में अनुवाद करवाते हैं।अगर ऐसे लोगों के साथ चर्चा के दौरान हम अपनी भाषाओं में बातें करें और उनका अनुवादक उसका अनुवाद भी हमारी भाषा से उनकी भाषा में करे तो हिन्दी और हमारी अन्य भाषाओं को प्रोत्साहन मिलेगा। साथ ही इससे स्थानीय भाषाओं में शिक्षित युवाओं को काम करने का नया क्षेत्र मिलेगा।इ स पर विचार मंथन किया जा सकता है कि शुरूआत कैसे करें।

आपसे आग्रह है कि यहां दिये गये सुझावों पर अगर आप उचित समझें तो संबंधित अधिकारियों को इन पर आगे कार्रवाई करने हेतु यह निवेदन पहुंचाने की कृपा करें। अगर उपरोक्त संदर्भ में किसी स्पष्टीकरण का आप या अन्य अधिकारीगण आदेश देंगे, तो मुझे वह प्रदान करके अत्यंत प्रसन्नता होगी।
सादर

रविदत्त गौड़

matruadmin

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।