एक कहावत है – “ख़त का मजमून भाँप लेते हैं लिफाफा देखकर।” हैं साहब ऐसे लोग, जो ऐसा कर सकते हैं, लेकिन बहुत कम। हो सकता है आने वाले समय में यह कहावत अप्रासंगिक हो जाए और लिफाफा देखकर मजमून भाँपने वाले कोई न बचे…क्योंकि वर्तमान पीढ़ी न तो कागजों पर ख़त लिखती है और ना ही डाक घरों तक पहुँचाती है! अब ‘ईमेल’ सहित कई माध्यम जो हैं। ना तो अब सड़क किनारे या किसी पेड़ पर बंधे वो लाल डब्बे दिखाई देते हैं जिनमें लोग अपने खतों को डालते थे। जिसे डाक विभाग का कर्मचारी एक निश्चित समय पर निकाल कर पोस्ट ऑफिस ले जाता था और वहाँ सभी पत्रों की छँटाई कर गंतव्य तक पहुँचाने का उपक्रम किया जाता था। यह उपक्रम आज भी होता है, पर उसमें व्यक्तिगत पत्रों की संख्या बहुत कम रह गई है। 166 साल पुराना डाक विभाग यूँ तो अब अत्याधुनिक संसाधनों से युक्त पूर्ण तकनीक की ओर अग्रसर है पर जो आत्मीय लगाव व्यक्तिगत पत्रों के स्वर्णिम काल में एक आम आदमी को इससे था, वह अब नहीं है। उस जमाने में डाकियों के भी अपने जलवे होते थे, खाकी रंग की वर्दी के ऊपर नोक दार टोपी जिस के अगले हिस्से में एक लाल,काली पट्टी और कोटनुमा शर्ट में बड़ी-बड़ी जेबें, कंधे पर एक थैला जिसमें वितरण के लिए डाक सामग्री, कुछ पत्र हाथ में। वे जिस गली-मोहल्ले से गुजर जाते थे वहां कई निगाहें या तो उन्हें चुपचाप देखती रहती थी या कुछ अपने उतावलेपन में पूछ भी लेते थे कि “भैया! हमारी कोई डाक आई है क्या?” कुछ लोग जो अपने घरों में व्यस्त रहते थे उनके कान सतर्क रहते थे कि कब डाकिया बाबू आवाज लगा दे। चिट्ठी पत्री के अलावा त्योहारों पर ग्रीटिंग कार्ड्स का भी एक जमाना रहा है। त्यौहारों पर पोस्टमेन द्वारा इनाम की दरकार अलग से, और लोग भी खासतौर से दीपावली पर डाकिया बाबू को कुछ रुपए और मिठाई अवश्य देते थे। कुछ लोग तो बाकायदा अपने घर में बैठा कर स्वल्पाहार करवाते थे।पर अब न वो वर्दी दिखाई देती है और ना ही वैसे डाकिये…! अब तो यदा-कदा साइकिल से कोई डाकिया या कोई कोरियर वाला किसी का कोई बिल या पार्सल लेकर आता दिख जाए तो गनीमत वरना ‘ई मार्केटिंग’ के आदमकद थैलों से लदे मोटरसाइकिल पर कुछ युवा आते-जाते अवश्य दिख जाते हैं या जोमैटो,स्विग्गी जैसे पके पकाए भोज्य पदार्थ लेकर घरों में देते एक विशेष रंग की टीशर्ट पहने युवा…! पर अब वह सौहार्द,अपनत्व कहीं दिखाई नहीं देता जो व्यक्तिगत पत्रों के ज़माने में था।
पत्र लेखन किसी साहित्यिक विधा से कमतर नहीं, बल्कि साहित्य की एक विधा ही है, जो अब लगभग लुप्त हो चुकी है। किसी भी पत्र की शुरुआत कोई कैसे करता है इससे पत्र लिखने वाले की बौद्धिक क्षमता का पता किया जा सकता है। अलबत्ता भावावेश या अत्यधिक प्रेमासिक्त हो कर लिखे गए पत्रों को इस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। वैसे भी ऐसे पत्र, डाक द्वारा कम ही भेजे जाते थे,इन्हे तो किसी खास व्यक्ति द्वारा या व्यक्तिगत तौर से छुप-छुपाकर दिया जाता था और दिया जाता है।
कुछ लोग पत्र के शुरुआत में किन्हीं देवी देवता का नाम या बीज मंत्र लिखते थे, कुछ लोग रेखांकन भी कर पत्र की शुरुआत करते थे, यानी इसी प्रकार से कुछ और लिख या बनाकर, पर हां, परंपरागत पत्र लिखने वाले बकायदा पत्र के दाहिनी ओर ऊपर तारीख,स्थान और कुछ लोग वार भी लिखकर पत्र की शुरुआत करते थे। हमारी पीढ़ी के लगभग सभी लोगों के पास अपने प्रियजनों, बुजुर्गों, गुरुजनों के या कुछ और पत्र अवश्य ही किसी संदूक में या कहीं ओर सुरक्षित,संरक्षित रखें मिल जाएंगे, जिन्हें कभी-कभार पढ़ कर अपनी स्मृतियों को तरोताजा कर हृदय का स्पंदन सुन नेत्र मूंदकर उस युग में पहुंच जाते होंगे जो अब कभी लौट कर नहीं आने वाला…!
पोस्ट कार्ड, अंतर्देशीय पत्र और लिफाफा इन तीनो में से आसमानी रंग का अंतर्देशीय पत्र अब बहुत कम दिखाई देता है। आजकल तो मोबाइल से पैसे ट्रांसफर होने लगे हैं वरना किसी जमाने में मनीआर्डर का बड़ा महत्व था। और ‘तार’, उसके तो जलवे ही अलग थे। किसी के नाम से तार आना बहुत बड़ी बात होती थी। ‘टेलीग्राम’ जिसके नाम से आता था उसकी तो छोड़िए, जो सुनता था कि फलां व्यक्ति के नाम से तार आया है उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगती थी…! अब तो ‘पोस्ट एण्ड टेलीग्राम’ में से ‘टेलीग्राम’ गायब ही हो गया है।संचार क्रांति के इस दौर के शुरुआत में ही ‘तार घर’ अप्रासंगिक हो बंद हो चुके थे।
एक जमाना था जब कक्षा छटी से लेकर कक्षा दसवी तक की परिक्षा में अंग्रेजी के पेपर में ‘पोस्टमेन’ पर निबंध आता ही था। जिसे मुझ जैसे हिन्दी मीडियम के लोग रट्टा मारकर लिख कर अंग्रेजी में पासिंग मार्क ले आते थे…!!
उस जमाने की फिल्मों में भी ख़त या पत्र को लेकर कई गीत बने जो लोकप्रिय भी हुए, उनमें से कुछ गीत तो सदाबहार हैं जो आज भी गुनगुनाते लोग मिल जाएँगे। जैसे- “फूल तुम्हे भेजा है ख़त में, फूल नहीं मेरा दिल है।” या “लिखे जो ख़त तुझे, वो तेरी याद में, हजारों रंग के नजारे बन गए।” या “ख़त लिख दे सँवरिया के नाम बाबू।” या “चिठ्ठी आई है वतन से चिठ्ठी आई है।” या “आएगी जरूर चिट्ठी मेरे नाम की।” और “डाकिया डाक लाया डाकिया डाक लाया।” इत्यादि कई गीत हैं। बहरहाल तो डाकिया बाबू को याद करते हुए बस यही गीत याद आ रहा है- “चिठ्ठी न कोई संदेश,जाने वो कौन सा देश, जहाँ तुम चले गए।”
कमलेश व्यास ‘कमल’
उज्जैन