परमात्मा से संवाद की भाषा है हिंदी !

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प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के संस्थापक ब्रह्मा बाबा ने ईश्वरीय ज्ञान की शुरुआत हिंदी से ही की।परमात्मा शिव की वाणी मुरली मुख्यतः हिंदी में ही प्रसारित होती है।राष्ट्रीय स्तर पर संवाद स्थापित करने के लिए हिंदी ही इस संस्था का मूल आधार है। हिंदी बहुसंख्यक जन की भाषा होने के कारण , एक प्रान्त के लोग दूसरे प्रान्त के लोगों से हिंदी भाषा में ही विचारों का आदान–प्रदान कर सकते हैं। हिंदी को आगे बढ़ाने का कार्य ब्रह्माकुमारी संस्था द्वारा सन 1936 से किया जाता रहा है।दुनिया के 140 देशों में प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के सेवा केंद्र है,जहां किसी न किसी रूप में हिंदी पहुंच रही है।संस्था से जुड़े अनेक ऐसे अहिन्दी भाषी भाई बहन है,जिन्होंने हिंदी को आत्मसात किया और परमात्मा से संवाद का माध्यम हिंदी को बनाया।
हिंदी को किसी समय,काल की सीमाओं में नही बांधा जा सकता।हिंदी का जन्म मनुष्य के जन्म के साथ ही हो गया था।जैसे ही मनुष्य ने जन्म लिया और उसके रुदन में ‘अ, आ, इ, ई,उ ….।’ के स्वर गूंजे ,तभी से हिंदी ने भी जन्म ले लिया ।किसी अन्य भाषा मे तो रुदन परिलक्षित नही होता।इसलिए हिंदी ही मनुष्य के जन्म की भाषा है।कुछ लोगो ने हिंदी को हिंदू धर्म से भी जोड़ने की कौशिश की।जैसेमहाकवि कालिदास के ‘रघुवंश’ महाकाव्य का खड़ी बोली में अनुवाद कर, उसकी भूमिका में राजा लक्ष्मण सिंह ने लिखा , ‘हिन्दी और उर्दू दो बोली न्यारी-न्यारी है। हिन्दी इस देश के हिन्दू बोलते हैं और उर्दू यहाँ के मुसलमान और पारसी पढ़े हुए हिन्दुओं की बोलचाल है।’लेकिन ऐसा कहना गलत है ।किसी भी भाषा को धर्म या क्षेत्र की सीमा दृष्टि से देखना उचित नही है।
लेकिन यह सच है कि उन्नीसवीं शताब्दी में उर्दू के प्रभुत्व के कारण हिन्दी कमजोर थी। तब उर्दू को पल्लवित करने का श्रेय उस समय के लेखक राजा लक्ष्मण सिंह को और हिंदी को आगे बढ़ाने का श्रेय राजा शिवप्रसाद को देना उचित होगा। राजा शिवप्रसाद हिन्दी के प्रवक्ता थे फिर भी उर्दू की ओर झुकते रहे । वे ‘आम फहम और खास पसंद’ जुबान के पैरोकार बन गए थे। सर सैयद अहमद ने अंग्रेजों के राज में उर्दू के विकास के लिए सबसे अधिक कार्य किया। उन्हीं के प्रयासों से उर्दू को न्यायालय की भाषा बनाया गया था। विद्यालयो में उर्दू की पढ़ाई अनिवार्य कर दी गई थी। उस दौर में साहित्यकार अयोध्या प्रसाद खत्री ने खड़ी बोली में कविता लिखना शुरू किया और इसे एक आन्दोलन का रुप दिया। भारतेन्दु युग के अधिकांश कवियों ने तो अधिकतर ग़जले ही लिखी , क्योंकि खड़ी बोली में कविता लिखना उनके लिए कठिन था।
अयोध्या प्रसाद खत्री ने ‘खड़ी बोली का पद्य’ नाम से एक पुस्तक भी संपादित की , इस पुस्तक की भूमिका इंगलैंड के फ्रेडरिक पिंकाॅट ने लिखी थी।फ्रेडरिक पिकॉट ने भूमिका में लिखा कि फारसी मिश्रित हिन्दी जो वास्तव में उर्दू थी, के न्यायालय की भाषा बन जाने से उक्त भाषा की बहुत उन्नति हुई है। उन्होंने इसे साहित्य की नई भाषा भी कहा। तब स्कूलों में उर्दू या फिर फारसी ही पढ़ाई जाती थी।
बाद में धीरे धीरे स्कूलों के अंदर देवनागरी हिन्दी पढ़ाई जाने लगी ।सन 1868 ई॰ में संयुक्त प्रान्त के शिक्षा अधिकारी एम॰एस॰ हैवेल ने देवनागरी का विरोध करते हुए माना था कि’ यह अधिक अच्छा होता यदि हिन्दू बच्चों को उर्दू सिखाई जाती, न कि एक ऐसी ‘बोली’ में विचार प्रकट करने का अभ्यास कराया जाता जिसे अंत में एक दिन उर्दू के सामने सिर झुकाना पड़ेगा।’हालांकि ऐसा हुआ नही,उनकी यह धारणा गलत साबित हुई और हिंदी ,उर्दू से कही आगे निकलकर विश्व पटल पर प्रतिष्ठित हुई।सन 1868 ई॰ में ही प्रयाग में ‘देशी जबान’ हिन्दी को मानें या उर्दू को लेकर एक अधिवेशन आयोजित किया गया। किन्तु प्रशासन के द्वारा उर्दू के मुकाबले हिन्दी को कम महत्त्व दिया जा रहा था। ऐसे प्रतिकूल वातावरण में खड़ी बोली के दोनों रूपों – फारसी लिपि में लिखी जाने वाली उर्दू एवं देवनागरी में लिखी जाने वाली हिन्दी – के बीच एक गहरी दीवार सी खड़ी हो गई थी। इसके पीछे का कारण दो धर्मों अर्थात हिंदू व मुसलमान के बीच की भाषाई मतभेद था, इसी पर भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने ‘उर्दू’ का स्यापा’ नामक व्यंग्य कविता भी लिखी थी।भारतेन्दु हरिश्चंद्र भी पहले उर्दू में गजल लिखते थे।
उस समय भारतेन्दु हरिश्चंद्र के संपादन में ‘कविवचन सुधा’ और ‘हरिश्चन्द्र चंद्रिका’ छपती थी।
उस समय हिन्दी पढ़ने वालों की संख्या बहुत कम थी।
हिन्दी भाषी राज्यो में उच्च शिक्षित लोग प्रायः अंग्रेजी भाषा का ही प्रयोग करते थे। पं॰ मदनमोहन मालवीय भी उस समय अंग्रेजी भाषा में ही लिखते थे। तब हिन्दुओं ने दयानन्द सरस्वती के ‘आर्य’ शब्द को अपनाया तथा हिन्दी भाषा को आर्यो की भाषा नाम दिया।
सन् 1870 ई॰ में हिन्दी की पहली रचना ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ आई थी।
सन 1893 ई॰ में बनारस के अंदर ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ की स्थापना हुई।
सन 1894 ई॰ में राधाकृष्ण दास ने ‘नागरीदास का जीवन-चरित्र’ नामक एक लेख लिखा।सन 1896 ई॰ में लेखक गदाधर सिंह ने एक बड़ा पुस्तकालय स्थापित किया । जिसे ‘आर्यभाषा पुस्तकालय’ नाम दिया गया। साथ ही ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ का प्रकाशन भी तभी शुरू किया गया। 14 मई 1899 को ‘भारत जीवन’ साप्ताहिक में महावीर प्रसाद द्विवेदी की ‘नागरी का विनय पत्र’ कविता छपी, कविता के अंत में उन्होंने मदनमोहन मालवीय से निवेदन किया कि वे मैकडोनल के यहाँ ‘नागरी’ को राजकाज की एवं न्यायालय की भाषा में व्यवहार करवाने के लिए इस विनय पत्र को साथ ले जाएँ।
सन 1898 ई॰ में हिन्दी पैरोकारों के साथ पं॰ मदन मोहन मालवीय ने मैकडाॅनल से मिलकर ‘नागरी’ को राजकाज की भाषा के रूप में में स्वीकृत करने का प्रतिवेदन दिया और इस प्रकार ‘नागरी’ का प्रवेश राजकीय भाषा के रूप में सन 1900 ई॰ में हुआ, यही से प्राथमिक विद्यालयों में हिन्दी भाषा मे पढ़ाई की शुरुआत हुई।
पंडित मदन मोहन मालवीय ने नागरी लिपि और हिंदी भाषा को सरकारी दर्जा दिलवाया ।
सबसे पहले ‘हिन्दी’ शब्द को महावीर प्रसाद द्विवेदी ने संस्कृत व्याकरण से सिद्ध किया। सन 1903 ई॰ के ‘सरस्वती’ अंक में उन्होंने ‘हिन्दी भाषा और उसका साहित्य’ शीर्षक से निबन्ध लिखा। वे लिखते हैं – “संस्कृत के व्याकरण के अनुसार ‘हिन्दी’ शब्द की उत्पति को सिद्ध किया।
देखते-ही-देखते हिन्दी एक व्यापक भाषा के रूप में अपनी जगह बनाती गई। इसके विकास के पीछे जो हिन्दीसेवियों का संघर्ष और त्याग था, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।
लेकिन समय के साथ आए आधुनिकता के बदलाव से अ,आ,इ,ई व क,ख,ग तथा १,२,३,४,५,६आदि सीखाने से पहले अब ए बी सी डी और वन टू थ्री सीखाया जाने लगा है।
हिन्दी की अंक माला तो जैसे इतिहास ही बन गई है। हिन्दी भाषाई भी हिन्दी अंको के बजाए अंग्रेजी अंको को अपनाने लगे है। जो गम्भीर चिन्ता का विशय है। जब हम हिन्दी में लिखते है तो अंको को अंग्रेजी में लिखने की क्या मजबूरी है। हिन्दी अंक न सिर्फ सहज है बल्कि लिखने और दिखने में भी सुन्दर लगते है। इसलिए हिन्दी अंकमाला को
मरने से बचाना होगा।तभी हिन्दी पूर्ण रूप से सुरक्षित कही जा सकेगी। अंग्रेजी सीखना और उसमें विद्वता प्राप्त करना बुरी बात नही है, लेकिन
हिन्दी की कीमत पर यानि हिन्दी को दांव पर लगाकर अगर अंग्रेजियत सिर चढकर
बोलती है तो यह भारत के लिए भाषाई खतरे का संकेत भी है। हिन्दी हर भाषा के मूल में
है अर्थात हिन्दी ही सब भाषाओं की जननी है। आज के अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में जो बच्चे हिन्दी भाषी पढ़ रहे है, उनकी हिन्दी बदहाल कही जा सकती है। कई ऐसे बच्चे हिन्दी में अनु़र्त्तीण तक हो रहे है।जिनकी पृष्ठभूमि में हिन्दी समाहित है। जो गम्भीर चिन्ता का विषय है। हिन्दी के पिछड़ने का कारण हिन्दी के
अज्ञानियो का अंग्रेजी का लबादा ओढ़कर स्वयं को श्रेष्ठ प्रदर्शित करने से भी है। हांलाकि ऐसे लोगो को न हिन्दी आती है और न ही अंग्रेजी। अंग्रेजी को हिन्दी में मिलाकर कॉकटेल भाषा के नाम पर हिन्दी और अंग्रेजी दोनो की भदद् पीटने वालो ने दोनो
भाषाओं को क्षति पहॅुचाने का काम किया है। ऐसे लोग हिन्दी दिवस भी हिन्दी डे के रूप में मनाते है। हिन्दी के नाम पर सरकारी बजट ठिकाने
लगाने से हिन्दी बलवती होने वाली नहीं है। हिन्दी को समृद्व करने के लिए सरकार और आमजन दोनो को इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। मात्र हिन्दी के विशेष अवसरो या हिन्दी अपनाने और बाकी दिनो में अंग्रेजी का गुलाम बने रहने से कैसे हिन्दी जिन्दा रह पाएगी?
हिन्दी अपनाने वालो को अपने ही हिन्दी भाषी देश में दोयम दर्जे का माना जाने लगा है। हिन्दी फिल्मों के नाम पर पेट भरने वाले फिल्मकार जब पर्दे से बाहर हिन्दी छोड़कर अंग्रेजी में बात करते है तो शर्म आनेलगती है। लोगो को जान लेना चाहिए हिन्दी किसी भी दृष्टि से कमजोर भाषा नही है। वह ऐसी भाषा है जिसे बौध धर्म ने संसार भर में अपने अनुयायियो के माध्यम से फैलाया। भगवान महावीर ने तो ढाई हजार साल पहले वनस्पति में जीवन का रहस्य हिन्दी में ही प्रकट किया था। सर्वाधिक अक्षरों की भाषा हिन्दी हर दिल पर राज करे इसके लिए राजनेताओ को भी इच्छाशक्ति जागृत करनी होनी।उन्हे वोट मांगने के लिए हिन्दी और संसद में जाकर अंग्रेजी का लबादा ओढने की प्रवति से बचना होगा। ऐसे नेताओ को ससंद में भी हिन्दी अपनाकर यह संदेष देना होगा कि हिन्दी हमारी मातृ भाषा ही नही देश की राष्ट्र भाषा भी है। देश की संसद से लेकर पंचायत और चोपाल तक हिन्दी सिर चढकर बोली जानी चाहिए। इसके लिए सरकार और जनता दोनो को आगे आना होगा। जिस तरह से हिन्दी सिनेमा के कलाकारो को हिन्दी फिल्मों में काम करने के लिए हिन्दी सीखनी पडती है उसी तरह देश के
नेताओ के लिए भी ससंद व विधान सभा पहुंचने लिए हिन्दी अनिवार्य करनी चाहिए। तभी हिन्दी -हिन्दुस्तान का नारा सार्थक होगा और हिन्दी अपने पैरो पर खडे होकर देश में गौरव पूर्ण स्थान प्राप्त कर सकेगी ।चूंकि हिंदी अध्यात्म की भाषा भी है।परमात्मा को याद करते हुए रूह रिहान का सशक्त माध्यम भी हिंदी ही हो सकती है।
(लेखक विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ ,भागलपुर ,बिहार के अवैतनिक उपकुलसचिव है।)
डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट
रुड़की(उत्तराखंड)

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आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।