खून-पसीने से जिंदगी होती रही दरबदर,
कौन जाने कि कैसा होता है उनका घर।।
गरीबी जहाँ मजबूरी बन जाए जीवन में,
तो कहाँ जाए सुख चैन उनका बेअसर।
तिनके-तिनके से झोपड़ी बनाते हैं वो,
जहाँ खाली रह जाता है उनका सफर।
कमाने वाला एक और खाने वाले चार,
असमंजस में बिखरता ये उनका बसर।
चाहे हो बरसात ,ठंड या फिर हो उमस,
रह जाता मजदूरी में नाम उनका अमर।।
सौ की जगह पचास भी मायने रखते हैं,
आसूँओं में जीवन बहता उनका झर-झर।
एक मजदूर की मजबूरी समझो तुम भी,
आखिर निर्बल जीवन उनका पल भर।
#मनीष कुमार ‘मुसाफिर’
परिचय : युवा कवि और लेखक के रुप में मनीष कुमार ‘मुसाफिर’ मध्यप्रदेश के महेश्वर (ईटावदी,जिला खरगोन) में बसते हैं।आप खास तौर से ग़ज़ल की रचना करते हैं।