आंसू पी जाता हूँ अपने
चट्टानों को तोड़ के
मांगू तुझसे क्या ए नादाँ
‘मैं‘ ही इन रंगों का
एक मात्र सृजन करता रे….
मेरा बचपन हुवा जवान
कब जरूरतों की डाली पे
फिर भी नभ पर द्रष्टि मेरी
और तूफानों के मानिंद- टकराता
नित् नित् चट्टानों से….
धुप में अपनी काया,
पल पल रोज जलाता हूँ
भूख पे अपनी प्रतिदिन ही
मुंह चिड़ाता और
भाग्य से टकराता हूँ….
मेरे पाँवों के छालें
और तन की पीड़ा
कभी मुझको नहीं सताती है
मेरे मन की व्यथा अक्सर
क्षुधा की ज्वाला हराती हैं….
मेरा भीगा तन पसीनें से
देखों दुर्गन्ध ‘मैं‘ की कैसे छुपाता है
अश्रु से सदेव डूबा ये
मेरा मन देखों केसे
घर-संसार महकाता है….
आंसू पी जाता हूँ अपने
पत्थरों को तोड़ के
क्या मांगू तुझसे ए नादाँ
‘मैं‘ ही इन रंगों का,
एक मात्र स्रजन करता रे…..
परिचय : सुबोध कर्णिक इंदौर (मध्यप्रदेश) के निवासी हैं|इन्होंने इंदौर स्कूल ऑफ़ सोशल वर्क इंदौर से समाजकार्य में पोस्ट ग्रेजुएशन किया है | विगत 16 वर्ष से समाजकार्य के क्षेत्र में समाज के विभिन्न वर्गों के लिए स्वास्थ्य,शिक्षा,आजीविका एवं स्वच्छ भारत अभियान के लिए सक्रिय रूप से कार्यरत हैं |आपको कविता लिखने का बेहद शौक है|
बहुत बढ़िया