सुनने और पढ़ने में अटपटा-सा लग रहा होगा, न जाने क्या खुराफ़ात दिमाग़ में चल रही होगी! पढ़ते ही कई तरह के विचार आ गए होंगे कि आखिर ये कैसी बात हुई कि नए देवता गढ़ना होगा? क्या किसी मानव के हाथ में होता है देवता गढ़ना? क्या देवता बनाना सम्भव है? क्या कोई मनुष्य इतना सक्षम है कि देवताओं को तैयार कर सके? तमाम सारे प्रश्नों का उत्तर है हाँ।
निःसंदेह अब तक हमारे द्वारा देखे-सुने और पढ़े गए सभी देवता मानव द्वारा ही गढ़े गए हैं। जी हाँ, मानव ही किसी दिव्यता का दर्शन और परिचय करवाता है। मानव ही वो योजक है, जो जनमानस के बीच से किसी दिव्यताधारक व्यक्तित्व की खोज कर उसके दैवीय गुणों से परिचित करवाता है और उसे देवता के रूप में स्थापित करता है।
देवता शब्द संस्कृत के दिव् धातु से बना है, जिसका अर्थ ‘दिव्य होना’ होता है, यह देवता कोई भी परालौकिक शक्ति धारक या पराप्राकृतिक होता है।
अद्भुत और ऐसी शक्तियाँ जो प्रायः मानव को महामानव बनाती है अथवा मानवजाति से भिन्न दर्शाती है, ऐसे व्यक्ति को देव कहा जाता है और वे इसलिये पूजनीय या अमर माने जाते हैं। देवता अथवा देव शब्द दैवीय गुणों से युक्त पुरुषों के लिये प्रयुक्त होता है और देवी इस तरह की स्त्रियों के लिए उपयोग किया जाता हैं।
भारतीय संस्कृति में सबसे प्रांजल वेद कथन या वेद माने जाते हैं। ऋग्वेद के अनुसार, देवताओं की स्तुतियों से देवताओं की पहचान की जाती है, इनमें देवताओं के नाम अग्नि, वायु, इन्द्र, वरुण, मित्रावरुण, अश्विनीकुमार, विश्वदेवा, सरस्वती, ऋतु, मरुत, त्वष्टा, ब्रह्मणस्पति, सोम, दक्षिणा इन्द्राणी, वरुनानी, द्यौ, पृथ्वी, पूषा आदि को पहचाना गया है, और इनकी स्तुतियों का विस्तृत वर्णन मिलता है। सभी पद्धतियों में देवताओं का विभिन्न स्वरूप, वर्णन आदि प्रचलित है। इसी क्रम में साहित्य में दिव्यता को स्वयं में समाहित करने वाले व्यक्तित्व को साहित्य का देवता कहना भी अतिश्योक्ति नहीं माना जा सकता।
प्रत्येक जाति, धर्म, पंथ, वर्ग, विधा में, जो दिव्य गुणों का धारक है, जिसमें दिव्यता है, जिसके लेखन अथवा कार्यों ने उसकी दिव्यता को प्रदर्शित किया है वह देवता है। उसी प्रकार, हिन्दी साहित्य में भी कई देवता हुए जिनका लिखा आज भी अमरत्व धारण किए हुए प्रांजल माना जाता है, उन्हें देवता कहना ग़लत नहीं होगा। उदाहरण के लिए वेदव्यास, महर्षि वाल्मीकि, तुलसीदास, मीरा, सूरदास, रैदास, रसखान एवं इसी परंपरा का निर्वहन करने वाले आधुनिक काल में भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, रामधारीसिंह ‘दिनकर’, निराला, महादेवी, सुमित्रानंदन पंत आदि को भी साहित्य देव कहा जा सकता है।
बहरहाल, देवताओं को गढ़ने की आवश्यकता इसीलिए भी है क्योंकि प्रत्येक 5-7 दशकों में साहित्य में नए आदर्श तैयार होते हैं, जो तात्कालिक पीढ़ी के लिए प्रेरणापुंज होते हैं, जिन व्यक्तिव से तात्कालिक समाज, साहित्यिक लोग या साहित्यकार प्रेरणा प्राप्त करके स्वयं को निखारते हैं। वे एकलव्य के मानिंद गुरु द्रोणाचार्य गढ़ते हैं और उनसे शिक्षित-दीक्षित होते हैं। सौभाग्य से वर्तमान काल तो साहित्य के स्थापित देवता ही पर्याप्त हैं जो अनगिनत एकलव्य गढ़ रहे हैं किंतु आने वाले 5-6 दशकों के बाद देवताओं का अकाल आने वाला है। चालीस-पचास साल बाद आने वाली पीढ़ी किसे आदर्श मानेगी? क्या वही आदर्श रहेंगे जो हमारे आज के आदर्श हैं? तर्कसम्मत तो नहीं लगता कि आने वाले पीढ़ी उन्हें ही अपना आदर्श माने क्योंकि वर्तमान में लिखा जा रहा लेखन इतना समदर्शी भी नहीं कि उसमें से कोई आदर्श तत्व बाहर आ सके या हमारे मौलिक आदर्शों के बारे में भी कोई मूल्यानूगत एवं तार्किक दृष्टिकोण स्थापित कर सके। जबकि दिव्यता धारक दृष्टिकोण अभी की पीढ़ी में भी दिखाई कम देता है। ऐसे समय में साहित्यानुरागी लोगों को इस विषय में चिंतन करना चाहिए कि कैसे किसी के लेखन में दिव्यता का दर्शन हो सके!
वर्तमान का साहित्यिक समाज एक अवसरवादिता के आभामंडल और व्यामोह से ग्रसित है। प्रत्येक दूसरा रचनाकार स्वयं को बतौर स्थापित साहित्यकार बताता है, प्रकाशिक दायित्व के साथ समझौता करने वाले प्रकाशकों की दुकानों से छपी हुई किताबों के सहारे या फिर अख़बार, पोर्टल, पत्र-पत्रिकाओं की बैसाखियों के दम पर ख़ुद को साहित्यकार कहने वाली वर्तमान पीढ़ी अपने ही लेखन को स्थापित और कालजयी करने की दिशा से कोसों दूर है। सुबह-शाम बस लेखन की बात तो करना, लिखना भी पर जब ये पूछा जाए कि आपके लेखन का ऐसा कोई ख़ास तत्व जो जनमानस को याद हो या जनमानस के बीच उतर कर उनके मानस के अवचेतन में अंकित हो तो इस सवाल के जवाब में अधिकतर या कहें वर्तमान पीढ़ी के नब्बे प्रतिशत मौन धारण कर बगले झाँकते नज़र आएँगे। वर्तमान काल को हिन्दी साहित्य का स्वर्णिम काल भी नहीं कहा जा सकता तो आज के रचनाकारों के साहित्यिक अवदान को कालजयी या अमर भी नहीं माना जा सकता।
ऐसे कठिन काल में साहित्य के जागरुक पुरोधाओं को चिंतन करना चाहिए कि हम हमारी भविष्य की पीढ़ी को क्या सौंप कर जाएँगे! इसी दिशा में हमारा लिखा कितना प्रासंगिक होगा! या क्या हम ऐसे देवता गढ़ सकते हैं जो भविष्य के लिए गुरु द्रोणाचार्य बनें! वर्तमान यदि अव्यवस्थित रहा तो भविष्य अंधकार में रहेगा, यह तय है। और हिन्दी के वर्तमान को सुधारकर हम भविष्य के नए साहित्यिक देवता तैयार कर सकते हैं। इसीलिए हमें वर्तमान को पुनः तैयार करना होगा, हिन्दी साहित्य में व्याप्त विसंगतियों के विरुद्ध आवाज़ उठानी होगी, लचर साहित्यिक व्यवस्था और ध्वस्त होती अध्ययनशीलता को बचाने के सामूहिक प्रयास करने होंगे, साहित्यिक लुटेरों और चोरों से इस पीढ़ी को भी बचाना होगा और आने वाली पीढ़ी के लिए भी पाल बांधना होगा। यदि कही ग़लत या कमज़ोर लेखन नज़र आए तो उसे सचेत करना होगा। अन्यथा कमज़ोर वर्तमान की नींव के सहारे निहायती कमज़ोर साहित्यिक भविष्य की इमारत खड़ी हो जाएगी, जो बाद में पतन का कारण बनेगी, इसके लिए भविष्य हमें यानी वर्तमान को कभी माफ़ नहीं करेगा।
जय हिन्दी!
डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
हिन्दीग्राम, इंदौर
(लेखक मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं हिन्दी प्रचारक हैं।)