कुशीनगर की यात्रा केवल भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण स्थल का भ्रमण नहीं बल्कि जन्म और मृत्यु के बीच जीवन यात्रा के उद्देश्य और अभीष्ट को जानने समझने का एक मार्ग है।
भगवान बुद्ध के जन्म, बोधिसत्व की प्राप्ति और उनके महापरिनिर्वाण से जुड़े स्थलों को देखने की इच्छा बचपन से ही मन के किसी कोने में दबी थी। किताबों में भी तथागत से बुद्ध बनने की कथा प्रभावित करती थी। ‘आत्म दीपो भव’ का मंत्र अंतस में कहीं गूंजता था। हालांकि अलग अलग जगहों पर भगवान बुद्ध के मंदिरों और स्तूपों को देखने का अवसर कई बार मिला लेकिन लुंबिनी, बोधगया और कुशीनगर इन तीन प्रमुख स्थलों के दर्शन के बिना यह अध्ययन चक्र पूरा नहीं होता…
1982 में इंटरमीडिएट के दौरान कुछ मित्रों के साथ बोधगया जाने का मौका मिला था। वहां मुख्य बोधि मंदिर के अतिरिक्त अलग अलग देशों द्वारा स्थापित मंदिरों के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उन दिनों मुझे डायरी लिखने की आदत थी तो वहां की मुख्य मुख्य बातों को उसमें नोट करता गया। आज इस संस्मरण को लिखते वक्त वह डायरी काम आई। जिस पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्ति हुई उस महाबोधि वृक्ष के भी दर्शन हुए। एकांत और नीरवता के बीच से कैसे आत्मज्ञान के बीज उपजते हैं इस रहस्य को समझने के लिए एक बार इस ऊर्जा क्षेत्र में अवश्य जाना चाहिए। यहीं ध्यान और एकाग्रता का अर्थ भी समझ में आता है।
बोधगया दर्शन के बाद राजगीर और पावापुरी होते हुए हम वापस घर लौटे थे।
इस कड़ी में दो बार कुशीनगर जाने का मौका मिला। पहली बार फरवरी 2009 में और दूसरी बार दिसंबर 2010 में। रक्सौल से गोपालगंज होते हुए कुशीनगर की दूरी 152 किमी है। सड़क मार्ग से पांच से छः घण्टे में पहुंचा जा सकता है। पर्यटक ज्यादातर गोरखपुर के रास्ते यहां पहुंचते हैं। गोरखपुर से कुशीनगर की दूरी 53 किमी है।
उस समय रक्सौल से गोपालगंज तक सड़क की स्थिति अच्छी नहीं थी। गोपालगंज से आगे निकलने पर फोरलेन सड़क मिलती थी। वह सड़क आगे यूपी की सीमा से मिलती है।
इस दौरान कुशीनगर के ‘पथिक निवास’ में भी ठहरने का मौका मिला और होटल इम्पीरियल में भी। पर्यटकों की भारी संख्या के कारण यहाँ एक से बढ़कर एक आलीशान होटल हैं। बिहार और यूपी के लोग शादी समारोह के लिए भी इस जगह और यहां के होटलों को पसंद करते हैं।
कुशीनगर बिहार और यूपी के अन्य शहरों से बिल्कुल अलग है। यहां के मंदिरों की बनावट और यहां की संस्कृति को देखकर मुझे भूटान के गुम्फाओं की याद आई। कभी कुसिनारा के नाम से जाना जाने वाला यह नगर प्राचीनकाल के 16 महाजनपदों में एक था। एक समय में यह नगर मल्ल वंश की राजधानी भी रहा। चीनी यात्री ह्वेनसांग और फाहियान के यात्रा वृत्तांतों में भी इस प्राचीन नगर का उल्लेख मिलता है। 1876 में कार्लाइल ने इस स्थल की खुदाई करवाई थी। आगे 1904 से 1912 के बीच पुरातत्व विभाग ने भी इसकी खुदाई करवाई। 1956 में भगवान बुद्ध की 2500वीं वर्षगांठ पर केंद्र सरकार द्वारा बनाई गई एक समिति की संस्तुति पर मंदिर को एक नवीन रूप दिया गया।
कुशीनगर में भगवान बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ था। यहीं उन्होंने अपना अंतिम उपदेश दिया। इस कारण यह पवित्र स्थल पूरे विश्व में फैले बौद्ध अनुयायियों की आस्था का प्रमुख केंद्र है। कहते हैं कि भगवान बुद्ध ने अपने महापरिनिर्वाण की घोषणा वैशाली में तीन महीने पहले ही कर दी थी। इस संदर्भ का जिक्र मैंने अपनी वैशाली यात्रा के संस्मरण में भी किया था।
इस महापरिनिर्वाण मंदिर में भगवान बुद्ध की 6.1 मीटर ऊँची प्रतिमा लेटी हुई मुद्रा में रखी है। यह मंदिर एक ऊँचे टीले पर स्थित है। इस प्रतिमा की सबसे खास बात यह है कि यह तीन मुद्राओं में दिखाई देती है। पैर की तरफ से देखने पर परिनिर्वाण मुद्रा, बीच से देखने पर चिंतन मुद्रा और सामने से देखने पर मुस्कान की मुद्रा दिखाई देती है।
आसपास के खंडहरों को देखकर लगता है कि प्राचीन काल में इस विहार की कई मंजिलें थी। इनमें कई शून्यगार भी थे जहाँ बौद्ध भिक्षु ध्यान किया करते थे ।
महापरिनिर्वाण स्तूप में मल्लों द्वारा उनके धातु अवशेषों को सुरक्षित रखा गया था। कालांतर में सम्राट अशोक ने उन अवशेषों को निकालकर उन्हें 84000 भागों में बांटा और प्रत्येक भाग पर स्तूप का निर्माण करवाया।
महापरिनिर्वाण विहार के पीछे मल्ल शासकों द्वारा निर्मित
40 फीट ऊँचा एक स्तूप खड़ा है।
विभिन्न देशों द्वारा निर्मित लगभग सभी मंदिर और विहार बुद्ध मार्ग पर स्थित हैं जो यहां का मुख्य मार्ग है। चीनी बुद्ध विहार, माथाकुंवर बुद्ध विहार, तिब्बती बुद्ध विहार, वाट थाई बुद्ध विहार, कोरिया बुद्ध विहार, इंडो-जापानी बुद्ध विहार, म्यांमार बुद्ध विहार, श्रीलंकाई बुद्ध विहार, ध्यान पार्क और राजकीय संग्रहालय यहां के अन्य आकर्षण हैं।
म्यांमार बुद्ध विहार के द्वार से प्रवेश करने पर एक भव्य पगोडा के दर्शन होते हैं जिस पर चमकता हुआ सुनहरा रंग किया गया है। पगोडा की ऊँचाई 108 फीट है जिसके अंदर भगवान बुद्ध की अधलेटी प्रतिमा है और दीवारों पर उनके जीवन का चित्रण है। यहां एक सरोवर भी है जिसके ऊपर एक सुंदर विहार बनाया गया है।
बुद्ध मार्ग पर आगे चलने पर दायीं तरफ इंडो-जापान-श्रीलंका बौद्ध केन्द्र स्थित है। इस मंदिर में भगवान बुद्ध की अष्टधातु की मूर्ति स्थापित है जिसे जापान से लाया गया था। यह मूर्ति कांच के एक भव्य चमकीले पात्र में रखी गई है ।
बुद्ध मार्ग पर रामाभार स्तूप की ओर बढ़ने पर आगे हिरण्यवती नदी का रास्ता जाता है। कुशीनगर के पूर्वी छोर पर प्रवाहित होने वाली हिरण्यवती नदी बुद्ध के महापरिनिर्वाण की साक्षी रही है। कहा जाता है कि इस नदी के बालू के कणों में सोने के कण मिलते थे जिसके कारण इसे हिरण्यवती कहा जाने लगा।
इसी हिरण्यवती नदी का जल पीकर बुद्ध ने भिक्षुओं को अंतिम उपदेश देने के बाद महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था। उनका दाह संस्कार मल्लों ने चक्रवर्ती सम्राट की भांति इसी नदी के तट पर रामाभार में किया था।
नदी से थोड़ा आगे बढने पर बाईं ओर रामाभार ताल के किनारे एक विशाल स्तूप खड़ा है जिसे मुकुटबंधन चैत्य या मुक्त बंधन विहार भी कहा जाता है। इसी स्थल को उनके अंतिम संस्कार का स्थल माना जाता है।
भगवान बुद्ध से जुड़े इन स्थलों का सम्यक वर्णन केवल ज्ञात इतिहास को पढ़कर या भौतिक अवशेषों को देखकर नहीं किया जा सकता इसके लिए एक अंतर्दृष्टि का होना भी जरूरी है।
बहरहाल इस ज्ञान भूमि में आकर कोई खाली हाथ लौटकर नहीं जा सकता। जो भी ज्ञान पिपासु जितनी बड़ी झोली लेकर यहां आता है उसे उसकी समाई से अधिक प्रसाद यहां प्राप्त हो जाता है…
डा. स्वयंभू शलभ