मुसाफिर हूँ यारों

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      लगातार मजदूरों के पलायन की बातें सुन सुनकर और टीवी, व्हाट्सएप जैसे बहुत से माध्यमों के द्वारा बड़ी ही दुखदाई फोटो देख-देख कर मन बहुत ज्यादा व्यथित हो रहा था।सोच रहा था क्यों ना कुछ मजदूरों के पास जाकर उनकी स्थिति को जाना जाए।

      मन के कोतुहल को मिटाने के लिए मैंने इन लोगो के बीच जाकर इनकी स्थिति को समझने का कुछ प्रयास किया।सोशल डिस्टेंसिंग का पालन भी करना था और किसी भी तरीके से अपने आप को और दूसरे लोगो को भी कोरोना कि बीमारी से बचाया जाए।इसी विचार के साथ अपने सबसे निकट हाईवे पर पहुँचकर कुछ मजदूरों की परिस्थिति का जायजा लिया।

      मैं अपने घर से निकल कर मेरठ रोड की तरफ चल पड़ा।अभी गाजियाबाद से थोड़ी दूरी पर आया ही था।सिहानी चुंगी के पास से एक मजदूरों की अपार भीड़ देखकर कुछ घबराहट सी महसूस हुई।पलायन करने वाले मजदूरों को मैं प्रवासी नहीं कहूँगा।अपने ही देश में इस तरीके का नाम पाने का शायद उन्हें अर्थ भी नहीं पता होगा।

      मजदूर अकेले नहीं जा रहे थे।छोटे छोटे मासूम बच्चे भी उनके साथ जा रहे थे।वो बच्चे जो मजदूरी नहीं करते हैं।वो अपने मेहनती माता पिता के पूरे दिन मेहनत करने की वजह से स्कूल में पढ़ते है।चाहे वह सरकारी हो या प्राइवेट हो लेकिन जैसे तैसे अपनी पढ़ाई कर रहे थे।

      सफर की थकान से लिप्त ऐसे ही लगभग 30-32 साल के एक युवक से मैंने पूछा भैया तुम लोग इतना पैदल चलकर जा रहे हो।यह जो बच्चे तुम्हारे साथ हैं।कौन-कौन सी कक्षा में पढ़ते हैं।वह मजदूर इतना भी नहीं बता पाया कि उसके बच्चे कौन सी कक्षा में पढ़ते हैं।उसने कहा भैया मैं इतनी मेहनत करता हूँ।कि मैं अपने बच्चो को पढ़ा सकूं।बस इसी लगन से 12-14 घंटे किसी ना किसी काम पर लगा रहता हूँ और रात को थक कर सो जाता हूँ।कक्षा का तो मैं बता नही पाऊँगा।बस इस बात की खुशी थी कि मेरे बच्चे पढ़ रहे है।

      अब मेरा मन पहले से भी ज्यादा व्यथित हुआ।वह छोटे-छोटे बच्चे जिनके लिए वह मेहनत कर रहा है ताकि उनका भविष्य उज्जवल हो जाए।उसे पता भी नहीं कि वह कौन सी कक्षा में पढ़ रहे हैं।शायद इतने घंटे की मेहनत के बाद वह इस तरह बेसुध हो कर सो जाता है कि उसे पता ही नहीं चलता कि कब नींद आई और कब रात गई।

      खैर इन को छोड़कर मैं थोड़ा सा आगे निकला और आगे जाकर मैं एक औरत से मिला।जिसके दो बच्चे थे लगभग दोनों बच्चों के बीच में 1 साल का फर्क था एक 4 साल का और एक लगभग 5 साल का होगा।एक बच्चे को गोद में लिए हुए थी और दूसरा उसके साथ पैदल पैदल चल रहा था।जब पैदल चलने वाला बच्चा थक जाता था तो वह पहले को नीचे छोड़ दूसरे को उठा लेती थी।इसी तरह उन्हें अदल बदल कर अपना सफर तय कर रही थी।

      मैंने उससे पूछा इस तरह कब तक कल चलोगे।तुम्हारा पति कहां है, एक बच्चे को वह क्यों नहीं पकड़ता है। तब उस औरत ने अपने पति की तरफ इशारा करते हुए बताया।कि वह जा रहे मेरे पति जिनके सर पर एक भारी सा बक्सा है।जिस तरीके से भारी बक्सा लिए वो चला जा रहा था उसके लिए बच्चे को उठाना नामुमकिंन था।उसे देखकर मुझसे और कुछ पूछा ही नही गया और मैं दुखी मन से आगे चल पड़ा।

      आधे घंटे के सफर में मुझे बहुत ही प्यास लगने लगी।मैंने अपनी गाड़ी से ठंडी पानी की बोतल उठाई और पानी पीना शुरू किया।अचानक मेरी नजर एक बच्चे की तरफ गई।जो मेरठ रोड पर स्थित पीएनबी बैंक के प्याऊ वाले नल से पानी पी रहा था। मन किया गाड़ी वहां छोड़कर उसी पानी को पीकर देखा जाए।जैसे ही मैंने  उस नल खोला।उसमें से एक दम गरम पानी आया।मेरी उसे पीने की हिम्मत ही नहीं हुई।जिस पानी को को वो बच्चे आराम से पी रहे थे।

      इस बीच जगह-जगह मुझे रास्ते में कुछ लोग भी दिखाई दिए।जो कुछ खाने के पैकेट लेकर इन लोगों की सहायता भी कर रहे थे।लेकिन वह सहायता इतनी नहीं थी कि सभी मजदूरों की भूख को खत्म कर सकें। जिसको जहां-जहां जो भी कुछ मिल रहा था।बस वह अपना उससे ही पेट भर कर आगे बढ़ रहा था।मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि इस तरह ये लोग कब तक चलेंगे।जहां तक देख रहा था बस मजदूर ही मजदूर नजर आ रहे थे।

       उनके साथ छोटे-छोटे मासूम बच्चे बस अपनी धुन में अपने मां-बाप के पीछे पीछे चले जा रहे थे।उन्हें ना किसी मंजिल का पता था ना यह पता कितना और चलना होगा।बस यह पता था कि अपने मां-बाप के पीछे पीछे चलना है और वह मां-बाप भी अपनी पूरी ताकत से अपनी मंजिल की तरह जल्दी पहुँचना चाह रहे थे।

      अपने मन की जिज्ञासा में आकर मैंने एक बुजुर्ग से पूछा कि क्या घर जाकर खाना पीना मिल जाएगा और इस बीमारी से बच जाओगे।उस बुजुर्ग की आंख में एक आशा दिखाई दी और जुबां पर एक बड़ा ही पॉजिटिव जवाब था।ये तो नहीं पता वहां खाना मिलेगा या इस बीमारी से बचेंगे।लेकिन अपने लोगों के बीच में जाकर कुछ दर्द तो दूर हो जाएंगे।उसकी इस बात से मन निशब्द हो गया।

      यहीं से मैंने वापसी आने का फैसला किया।मन में एक दुख यह भी था।इस पूरे रास्ते में कोई भी सरकारी वाहन,बस या टेंपो मुझे उनकी सहायता करता हुआ दिखाई नहीं दिया।मैं इन सभी लोगों को अपने मंजिल की ओर बढ़ता हुआ छोड़कर वापसी अपने घर की तरफ चल पड़ा।

      लगभग 1 घंटे तक मैंने इन लोगों से विचार-विमर्श किया और पाया कि इतनी निराशा के बीच भी इन लोगों को एक विश्वास था कि वे जल्द से जल्द अपने घर से पहुंच जाएंगे और अपने लोगों से मिल ही लेंगे।शायद छोटे-छोटे बच्चे जो बीच में ही पढ़ाई छोड़ आए हैं वह बाद में पढ़ लेंगे।अगर जिंदा रहे तो वापसी जरूर करेंगे,क्योंकि बड़े बड़े शहरों में रह रहे लोगो को इनकी जरूरत हो या ना हो लेकिन ये लोग कल भी इसी उम्मीद में गांव से शहरों की तरफ आए थे,कि इनके बच्चे पढ़ लिख कर जीवन में आगे बढ़ सकें।इन सबके बीच मैंने बस यही अनुभव किया कि भारत मे सरकारे आएंगी और जाएंगी लेकिन इन लोगो का समय ना बदला है और ना ही बदलेगा।बस ये लोग अपने जीवन की अच्छी कल्पना की उम्मीद में जीवन भर चलते ही रहेंगे।

नीरज त्यागी
ग़ाज़ियाबाद ( उत्तर प्रदेश )

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