बदलाव प्रकृति का नियम है और जीवन का आधार प्रकृति है।इसलिए कोरोना हो या कोरोना जैसी कोई भी अन्य विकट वैश्विक चुनौती हो,जीवन शैली बदलने की अति आवश्यकता होती है।
चूंकि प्रकृति जीवन जननी है और प्रत्येक जीव-जन्तु प्रकृति की कोख से उत्पन्न हुआ है।जिसे विभिन्न धार्मिक ग्रंथ एवं विद्वानों सहित वैज्ञानिक भी मानते हैं।इसीलिए प्रकृति को ही ईश्वर की संज्ञा दी गई है।
संभवता प्रकृति कोरोना के माध्यम से मानव जाति को संकेतिक सुझाव दे रही है कि हे मानव संभल जा और प्रकृति से मत खेल।अन्यथा परिणाम इससे भी भयंकर होंगे।
सर्वविधित है कि वर्तमान मानसिकता अंधे को अंधा,काने को काना,गंजे को गंजा, लंगड़े को लंगड़ा और मानसिक तनाव से गुजरने वाले रोगियों को पागल शब्दों के प्रयोग से आनंद लेते हैं।जबकि अब स्तिथि यह हो गई है कि ऊपरोक्त अत्याधिक मानव इसलिए पागल हुए जा रहे हैं कि उनके भ्रष्टाचार द्वारा अर्जित धन तो क्या,खून-पसीने के गाढ़े परिश्रम से कमाया धन भी काम नहीं आएगा।किन्तु फिर भी अपने शब्दों में बदलाव नहीं ला रहे।जो दुर्भाग्यपूर्ण है।हालांकि तथा कथित बुद्धिमान,ईमानदार, जनसेवक,विभिन्न धर्मों के धर्मात्मा अपने-अपने कुकर्मों का प्रायश्चित तालियां,थालियां व घंटा बजाकर एकांतवास का एक मात्र सहारा ले रहे हैं।किन्तु अपने आचार-व्यवहार में बदलाव का प्रयास नहीं कर रहे।
इसलिए एटम बम, हाईड्रोजन बम व हवा से हवा मे मारने वाली मिज़ाईलों पर ऐंठने वाले राष्ट्र भी घुटने टेक चुके हैं।जिसके बावजूद शवों की भांति ऐंठने वाले अंहकारी,दुराचारी मानव व राष्ट्र समय की दृष्टि को गच्चा देते हुए अपनी-अपनी जीवन शैली को बदलने का प्रयास तक नहीं कर रहे।जबकि समय 'कोरोना' के रूप में नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित करने का राष्ट्रीय ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय अथक संदेश दे रहा है। जय हिंद
इंदु भूषण बाली