छोड़ो सम्माननीयों।कैसी सतयुग की बातें कर रहे हो।यह कलयुग है और कलयुग में वह मजाक मजाक ही कहां होता है?जो सामने वालों को गहरा दु:ख ना दे।
आदरणीयों मजाक मजाक में अंतर होता है।एक में मजाक किया जाता है और दूसरे में मजाक उड़ाया जाता है।जैसे लंगड़े को लंगड़ा कह कर, गंजे को गंजा, काने को काना, गूंगे को गूंगा, कम सुनाई देने वाले को बहरा और पागल को पागल कह कर मजाक उड़ाना शामल है।इसमें यदि पीड़ित विरोध करे तो यह कह कर और अधिक दु:खी करते हुए कहना कि यार मैं तो मजाक कर रहा था।
उक्त तथाकथित बुद्धिमानों का उक्त मजाक हर दिन की दिनचर्या है।जबकि पीड़ितों पर इसका प्रभाव उक्त कहावत ‘चिड़ियों की मौत और गंवारों की हंसी’ चरितार्थ होती है।इसके बावजूद उक्त दु:खदायिक मजाक कर्ताओं का सुवह, दोपहर व रात का खाना नहीं पचता और तब तक नींद नहीं आती।जब तक वो उक्त पीड़ितों को मजाक के रूप में कष्ट ना दे दें।जो अत्यंत निंदनीय अपराध है और वर्तमान सरकार के टाएं-टाएं फिस हो चुके दिव्यांगता अधिनियम 2016 में दण्डनीय भी है।
#इंदु भूषण बाली