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शजर की चाह थी कि परिंदों को आसरा दे ।
फिजा ने कुछ और ही दिखाया है नजारा ।।
जईफ हुआ शजर,जज्ब भी लुप्त हुआ है।
इसका आसरा देने का जज्बा अभी जवां है ।।
कुछ इस कदर खस ने इसे हर तरफ घेरा है।
सूरज की धूप से भी इसका अंतर्मन तपा है।।
गर्दिशे दौरां का असर कुछ इस कदर हुआ है।
इसके अपने बजूद ने इसका साथ छोड़ा है।।
दामनगिर भी इसे खाक में मिलाने को है।
कुल्फ़त ऐसी है इसकी,जमीं ने दरकिनार किया है।।
नीरज त्यागी
ग़ाज़ियाबाद ( उत्तर प्रदेश )
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