पश्चिम बंगाल लोक कला और संस्कृति के मामले में एक समृद्ध राज्य है…शांतिनिकेतन यात्रा संस्मरण की कड़ी में पश्चिम बंगाल के ‘बाउल संगीत’ का जिक्र भी जरूरी है…यह संगीत यहां की विरासत है…इस संगीत ने यहां के सांस्कृतिक जगत में बहुत कुछ जोड़ा है…
बाउल संगीत ऐसा है कि सीधे रूह में उतर जाय… काफी हद तक सूफी संगीत जैसा…कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर भी बाउल संगीत के प्रशंसक थे…वे शांतिनिकेतन के कार्यक्रमों में बाउल कलाकारों को जरूर बुलाते थे…
कविगुरु ने अपने एक गीत में लिखा भी है…’बादल बाउल बजाए रे इकतारा… झर झर झरती है बस जलधारा…’ मतलब जैसे बादल आकाश में विचरते रहे हैं वैसे ही बाउल विचरते रहे हैं बंगाल की भूमि पर अपनी रसधार के साथ… यहां के गांव कस्बों में, खेत खलिहानों में, वनांचलों और मैदानी इलाकों में… हर जगह बाउल गूंजते रहे हैं…
बंगाल के लगभग हर हिस्से में बसते हैं बाउल अपने कुनबे के साथ…शांतिनिकेतन के आसपास भी इनका एक कुनबा नजर आया…बीरभूम जिले में इन घुम्मकड़ कलाकारों की तादात अधिक है…
हाथ में इकतारा लिए हुए ये बंसी भी बजाते हैं… ढोलक भी…पैरों में घुंघरू भी बांधते हैं… सिर पर पगड़ी भी…कपड़े ज्यादातर गेरुआ रंग के होते हैं… उनकी अपनी ही वेशभूषा अपनी ही चालढाल है.. दूर से ही पहचान में आ जाते हैं… चलते हैं तो नूपुर की झंकार सुनाई देती है… गाते हुए नाचते भी हैं अपनी शैली में…उनकी पूरी देह लय में डूब जाती है… अपने सुर ताल और भंगिमा से वे अपनी बात को सुननेवाले के हृदय में उतार देने का गुर जानते हैं…
उनका गान दरअसल एक आकुल पुकार है सृष्टिकर्ता के लिए…अज्ञात के लिए…जो कदाचित आत्मरूप में कैद है…बंधन में है… और खुले में उड़ना चाह रहा है… बाउल उसे ही मुक्त करना चाहता है…
बाउल गीतों के ज्यादातर बिम्ब प्रकृति से जुड़े हैं…उनमें धान के खेत, ताल सरोवर, मेघ से भरे आकाश, वनांचल, फूल, पौधे, वृक्ष, वनस्पति ही गुंजायमान होते हैं…यह गायन मनुष्य को प्रकृति से जोड़ने की एक जीवंत कला है…
बंगाल की इस अनोखी परंपरा को प्रत्यक्ष रूप में देखना मेरे लिए आनंद का विषय था पर इन कलाकारों की अवस्था को देखकर थोड़ा दुःख भी हुआ… मैं सोचता रहा कि सरकार को इनके जीवन स्तर को सुधारने की दिशा में जरूर कुछ करना चाहिए…
इस लोक कला और इस विरासत को बचाये रखना बेहद जरूरी है…
क्रमशः….
डा. स्वयंभू शलभ
रक्सौल (बिहार)