बंधुओं माननीय उच्चतम न्यायालय ने घोषणा की है कि अब न्यायालय के निर्णय भारत की छह भाषाओं में दी जाने की व्यवस्था की जाएगी । लेकिन गहराई से देखें तो यह केवल हिन्दी प्रेमियों को भरमाने वाली बात है … छह क्या आजकल तो गूगल पर दो मिनट में दो सौ छप्पन भाषाओं में अनुवाद की सुविधा उपलब्धल है, वह भी एकदम फ्री में । जजों को तो अनुवाद करना नहीं है । जबकि भाषा आंदोलनकारियों की मांग है कि न्यायालयों में अपील, बहस व निर्णय हिंदी एवं उच्च न्यायालयों में वहाँ की राजभाषा में भी हो । यद्यपि संविधान के अनुच्छेद 348 के अनुसार (खण्ड 1 के उपखंड क के अंतर्गत) उच्च न्यायालय में हिन्दी या संबंधित राज्यों की भाषा में कार्यवाही हो सकती है, परंतु निर्णय व डिग्री आदि अंग्रेजी के ही मान्य होंगे । जब तक संविधान का अनुच्छेद 348(1a) में संशोधन न कर दिया जाए, जिसमें उच्च एवं उच्चतम न्यायालयों की भाषा केवल अंग्रेजी में ही करने की व्यवस्था है, तब तक न्यायालय हिंदी के संबंध में ऐसे ही झुनझुना पकडाते रहेंगे और हम हिंदी प्रेमी सबकुछ जानते हुए भी उसे यूं ही बजाते हुए अपना मन बहलाते रहेंगे … हिन्दी को देना हो तो संवैधानिक मान्यता देकर उच्च न्यायालयों में हिन्दी व राज्य की भाषा व उच्चतम न्यायालय में हिन्दी को लागू करो । …. डॉ. राजेश्वर उनियाल, मुंबई
मैं इस निर्णय को इस रूप में ले रहा हूं कि चाहे अनचाहे सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायपालिका में भारतीय भाषाओं के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। हालांकि में बंधुवर डॉ उनियाल के कथन से भी सहमत हूं कि जनता के दबाव के चलते अभी तो झनझुना ही थमाया गया है। अच्छी बात यह है कि न्यायपालिका में जनभाषा के लिए जनता का दबाव बन रहा है और न्यायपालिका इसे महसूस भी कर रही है।हालांकि इस उद्देश्य के लिए अभी तो इसके लिए लंबी लड़ाई लड़नी होगी।
डॉ. मोतीलाल गुप्ता “आदित्य’