एक सूरज बाहर,
आग उगल रहा है..
दूसरा सूरज मेरे,
अन्दर जल रहा है।
मेरे अन्दर सुलग रहे,
सवाल चैत्र,वैशाख और
जेठ में तपने वाले सूरज,
के तीक्ष्ण तेवर से भी तल्ख हैं।
वे बार-बार मुझे झकझोरते,
हैं कि एक ही मुल्क के बाशिंदे..
होकर भी लोगों के बीच,
असमानता की खाई..
इतनी गहरी क्यों है?
किसी ने दुनिया मुट्ठी में,
कर ली है तो कोई एक..
मुट्ठी आसमान के लिए,
भी तरस रहा है।
तरक्की की दौड़ में कोई,
आसमान जितना ऊंचा..
उठ गया है तो किसी,
को जमीन में धंसने
लायक आबोहवा भी,
मयस्सर नहीं है।
कोई मजहब के नाम पर,
रोटी रोजगार से बेदखल..
हो रहा है तो कोई मुकम्मल,
तालीम पाकर भी गुजर
बसर लायक धंधे-पानी..
का जुगाड़ करने में भी
असमर्थ है।
जिसे देखो वह अपने ही,
अन्दर की आग में झुलसता..
नजर आ रहा है।
बस सिर्फ मुट्ठी भर लोगों,
का ही एक वर्ग ऐसा है जो..
चैन की बंसी बजा रहा है।
अन्नदाता की आत्महत्याएं/
आरक्षण की आग/प्रान्तीयता,
की लपटें/कथनी और करनी..
का अंतर/दोहरे मापदंडों की
सियासत और अंतर्जाल की
मायावी दुनिया में अपनों के
बीच बेगाने होते हम..
ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो,
मुझे अंदर-ही अंदर..
खाए जा रहे हैं।
चाहकर भी मैं,
इन उबलते सवालों की..
झुलसन से अपने-आपको,
रोक नहीं पा रहा हूँ।
बाहर के सूरज के तेवर,
तो फिर भी हवा,पानी,कूलर..
रेफ्रीजरेटर,शीतल पेय पदार्थ,
प्रकृति की हरितिमा और
शाम ढलने के अहसास
के साथ नरम पड़ जाते हैं।
लेकिन मेरे अंदर के सूरज,
के तेवर मौसम,हालात,तारीख..
दिन,महीने और हालात के बदलने
पर भी कभी नरम नहीं पड़ पाते हैं।
जब-जब कोई सियासत,
हालात बदलने के सुनहरी..
सब्जबाग दिखाती है,
मेरे अंदर के सूरज को जैसे..
पंख लग जाते हैं,
वही पुराने घाव फिर हरे
हो जाते हैं।
बरसों से इन जख्मों को,
कुरेदने और उन पर आश्वासनों..
का मरहम लगाने का यह खेल,
ऐसे ही चल रहा है..
जैसे,एक सूरज बाहर,
आग उगल रहा है..
दूसरा सूरज मेरे,
अंदर जल रहा है।
#डॉ. देवेन्द्र जोशी
परिचय : डाॅ.देवेन्द्र जोशी गत 38 वर्षों से हिन्दी पत्रकार के साथ ही कविता, लेख,व्यंग्य और रिपोर्ताज आदि लिखने में सक्रिय हैं। कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित हुई है। लोकप्रिय हिन्दी लेखन इनका प्रिय शौक है। आप उज्जैन(मध्यप्रदेश ) में रहते हैं।