दो विपरीत दिशाओं में खींच मन
खेलता है कशमकश का खेल.
तुम तो,
मुझमें समाये हो
यह शाश्वत् सत्य
बड़ी शांति देता है
शक्ति प्रदान करता है
कुछ भी कर बैठने का
साहस प्रदान करता है
रह गये थे जो अधूरे सुकर्म
समय के आभाव में
उन्हें पूरा करने की
प्रेरणा देता है.
पर दूसरे ही क्षण
तुम्हारा शारीरिक अभाव
निचोड़ लेता है
साहस की वह हर बूँद
जो समा गई थी
कुछ क्षण पहले ही
कर्म-बंधन के बंधन में
जब स्वप्न छोड़
खुली आँखों न देखा
तुम्हारा भौतिक तन.
हाहाकार कर उठा जीवन
कैसे बैठाऊँ दोनों में सामंजस्य!
यथार्थ में जीना है
पर स्वप्न भी तो उसमें उतारना है!
तुम्हारा और मेरा
खुली आँखों देखा गया स्वप्न
दो शरीर, चार नेत्रों द्वारा
देखा गया स्वप्न.
बसाना है मुझे अपने हृदय में
तुम्हारे हृदय की भावनाओं को
तुम्हारे भौतिक नेत्रों से
देखे गये उन स्वप्नों को
जो मैंने और तुमने जगी आँखों देखे थे
अब तुम्हारी बंद आँखों के हर भाव को
जाग्रत करना है मुझे अपने हृदय में
तुम्हारी मौन हुई वाणी के पीछे
छिपी मूक वाणी को
कर मुखागार, है प्रेषित करना
स्वयं की वाणी से.
हाँ!
जूझता है मेरा मन
पल-पल इस द्वंद्व में
कि,
तुम नहीं हो मेरे पास
हर क्षण देखती हूँ तुम्हारी कुर्सी,
तुम्हारे हर आवास को
और हो जाती हूँ निराश
कि तुम वहाँ नहीं हो;
चीत्कार कर उठता है मन
और बहने लगती है अश्रुधार
बह जाते हैं सब स्वप्न
ढह जाती है साहस की दीवार
और जब,
क्रंदन की बाढ़ में
कूल-कगारों को तोड़ता
डूबने लगता है
आस का एकल पक्षी
तुम हृदय की गहराईयों से उठ
पकड़ लेते हो उसका हाथ
और धीरे-धीरे,
उसके पंखों को सहलाते विश्वास के साथ
खींच लेते हो
मन की अतल गहराईयों में;
प्रेम की अनत, अनगिनत फुहारों से
थपक-थपक,
देने लगते हो सांत्वना
और तब,
गूँज उठती है
तुम्हारी धीर-गम्भीर वाणी
हर ज़ख्म पर
शीतल लेप लगाती सी-
“हूँ यहीं तुम्हारे पास
और,
रहूँगा सदा ही-
वचन दिया था न
सात जन्म निभाने का,
हर जन्म को
पहला मानना तुम
तभी तो बदलेगी
अनंत की
हमारी-तुम्हारी यात्रा
और छूटेगा,
तुम्हारा यह आक्रोशित क्रंदन
जो तुम्हें,
निराशा के गर्त में डुबा
मुझसे दूर, बहुत दूर ले जाता है
जब कि मैं,
यहीं….यहीं….यहीं हूँ….
हर पल, हर क्षण
तुम्हारे ही हृदय में.”
“मत देखो,
मेरी कुर्सी और मेरे आवास
झाँको अपने अन्दर
और,
पाकर वहाँ सदैव ही मुझे
तुम पाओगी,
मेरी कुर्सी और मेरे आवास में भी सदा मुझे;
पकड़ कर,
मेरी उस अंतरात्मा का हाथ
बढ़ी चलो
करने उन सपनों को साकार
जो देखे थे,
तुमने और मैंने खुली आँख
मानवता के हित में
छोटे या बड़े,
करने हैं
हर काम अपनी सामर्थ्य भर
चार खुली आँखों के स्वप्नों को
पूरा करना है तुम्हें
न केवल अपनी दो खुली आँखों से
वरन्,
जोड़नी है उस दृष्टि में तुम्हें
अपनी और मेरी अंतरात्मा की निर्मल दृष्टि
जो,
करेगी मेरे शारीरिक आभाव की पूर्ति
और तब,
विश्वास के पंख पर बैठ
तुम पहचानोगी कि,
मैं हूँ सदा ही तुम्हारे साथ
करने,
दोनों के सपने साकार.”
“छोड़,
अंतर्द्वन्द्व का भ्रमजाल
पकड़,
कर्मठता की डोर
बढती रहो कदम-दर-कदम
इस विश्वास के साथ
कि,
मिलाता हुआ तुम्हारे कदम से कदम
हूँ हर पग तुम्हारे साथ.”
“बढ़ती रहो, बढ़ती रहो
अनंत की ओर
जब तक न हो जाएँ हम
पुन: दो शरीर और एक जान
चलने कदम-दर-कदम साथ-साथ.”
#डॉ. स्नेह ठाकुर