“खिड़कियाँ”

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minakshi vashishth

ये खिड़कियाँ भी जाने क्या-क्या याद् दिलाती हैं। खिडकियों से जाने कैसा रिश्ता जुड़ा है मन का ये मुझे पल-पल नये -नये अहसासों के रंग में रंगती रहती है ।
मुझे बचपन से ही बंद खिडकियों से चिढ़ है बंद खिड़कियाँ घुटन पैदा करती हैं खिड़कियाँ तो खुली हुई,ठण्डी,ताजा और सुगन्धित हवा लाने वाली ही अच्छी लगती हैं। मन खुश हो या उदास या फिर बिखराव की स्तिथि हो हरे-भरे पेड़ों की ओर खुलने वाली खिड़की घर में मेरा पसंदीदा कोना रहा है,कुछ पल के लिये  खिड़की से दिखती हरियाली को एकटक होकर देखना और अगर मौसम बसंत का हो फिर तो क्या कहने…!
नवकोंपलों के बीच गिलहरियों की धमाचौकड़ी देखते ही बनती है ,बसंती फूलों पर मंडराती तितलियाँ को देख मन तितलियों के पीछे दौड़ते हुए फिर से बच्चा बन जाता है ।
खिड़की के घेरे से दिखता ठहरा हुआ आकाश ,गुजरते मौसम और चहकता जीवन  इन्हें गौर से देखने का  अहसास किसी अलग ही दुनियां में ले जाता है ।
सच कहूँ तो घर की हरियाली की और खुलने वाली खिड़की से होकर एक चोर रास्ता मेरे मन तक जाता है ,जब चारो और पतझड़ छाया हो तो घर की ये हरियाली में खुलने वाली खिड़की ही तो है जो मन को थोड़ी ठंडक पहुंचाती है ।
इस खिड़की पर आकर  एक क्षण में ही मेरे मन की सारी हलचल थम जाती है ।
मेरी सारी चेष्टाएँ,सारे हाव-भाव सब ठहर जाते है ,
मन की सारी उथल-पुथल  थम जाती है इस खिड़की पर आकर और जीवन के प्रवाह में कभी-कभी मैं पत्थर जैसी हो जाती हूँ अब इस खिड़की पर आकर मैं भले ही पत्थर बन जाऊ पर ये चंचल मन तो शरारती गिलहरियों की तरह इस डाल से उस डाल  फुदकने लगता है। जीवन की खट्टी-मीठी-कसैली यादें एक एक कर आँखों के आगे तैरने लगती हैं बिल्कुल ताजा-ताजा……!
ये यांदे हँसाती हैं ,रुलाती हैं
।पिछली यादों में खोते समय भले ही मैं वर्तमान भूल जाती हूँ फिर भी सच यही है कि जितनी देर  खुद को यादों में खोती हूँ उतनी देर एक निश्चिन्त जिन्दगी जीती हूँ  और यादों से अलग होते ही बिखरने लगती हूँ “””अगर मन से सारी यादें मिटा दी जाएँ  तो जीवन जीना ही मुश्किल हो जाये।।
खैर….!
आज एक ऐसी ही फ़ुर्सत भरी दोपहरी में यूँ ही इस खिड़की पर आना हुआ और कुछ पल हरियाली पर नजरें ठहरते ही एक-एक कर धुंधली यादें  निखरने लगी । मुझे याद आ गई वो खंडहर की खिड़की और खिड़की से झाँकती खुशियाँ ….,याद आ गये वो खिड़की से झांकते नेवले उनकी गोल-गोल चमकीली आँखे 👀
हाँ जी खंडहर की वो खिड़की जिसे खोलने की सख्त मनाही थी ।वो खिड़की जिसके पीछे हरा-भरा चहकता,चहचहाता हुआ जीवन बसता था।मैंने कई बार जानने की कोशिश की और एक दिन नानी ने बताया कि “ये खिड़की मुझे बीती बातें याद दिलाती है यहाँ हमारे  पिताजी की भव्य बैठक थी वो जमीदार थे और सारे लगान के मामलो की सुनवाई यही होती थी। इस खिड़की के सहारे खड़े  होकर कभी-कभी घर की महिलाएँ बैठक की बातें सुन लेती थीं भले ही उन्हें बाहरी मामलों में  बोलने का अधिकार नही था  पर वो सुन तो सकती थीं””
>नानी अपने परिवार के  बारे में बताते हुए अक्सर काफी भावुक हो जाती थीं
एक जमींदार के न्याय ,अन्याय की साक्षी रही खिड़की अब जर्जर हो चुकी थी उसकी नक्काशीदार किवाड़े भी अब घुनने लगी थीं और अब न सिर्फ वो बैठक बल्कि उस घर की पूरी की पूरी दूसरी मंजिल  कभी आये भूकम्प के झटके से धराशायी हो  गई  थी ।
अब उस खाली घर की वो भव्य बैठक ईट-मिट्टी के बड़े से ढेर  में बदल चुकी थी और वो खिड़की ‘खंडहर की खिड़की’ बन गई जिसे बरसाती मिट्टी ने जकड़ रखा था मैंने चुपके -चुपके सारी मिट्टी हटाकर आखिर उसे खोल ही दिया ।उस दिन नानी जाने क्यों जरा भी गुस्सा नही हुईं हाँ जरा आश्चर्यचकित जरुर थीं । मैंने नानी से छुपकर ही वहाँ ढेर सारी फूलो वाली क्यारियाँ बनाई थीं उस मलबे को  खुशबू और हरियाली ने ढक लिया था जिसे देखकर नानी भी खुश थीं अब तो नानी ने भी मेरे साथ मिलकर वहाँ पपीता,कनेर ,बेर के पेड़ लगा दिए और वो खण्डहर छोटा सा बगीचा बन गया।
मै और नानी अक्सर दोपहरी में बरोठे में ही सोते थे जिससे कि गर्मी की सुनसान दोपहरी सुनसान न लगे ।नानी कुछ देर खुद पढती  और फिर मैं उन्हें पढकर कहानियाँ सुनाती ।(हाँ जी मेरी नानी मुझे नही बल्कि मैं उन्हें कहानियाँ सुनाती थी । वो कहती थीं सुनने से ज्यादा  मजा  पढ़कर आयेगा तो मैं पढती और नानी को अपनी भाषा में सुनाती थी। नानी कहती थीं कि इससे तेरी स्मरणशक्ति तेज होगी)….😃😃😃😃
नानी तो कुछ देर सुनकर-पढ़कर सो जाती थी पर मेरी नन्ही आँखों में नींद कहाँ रहती थी और मुझे तो पूरा यकीन हैं कि शायद ही किसी बच्चे को गर्मी की इन लम्बी सुनसान दोपहरी में सोने में अच्छा लगता हो। अब वो बड़ो की डांट के डर से आँखे मूंदकर पड़े रहें वो और बात है—-!! ….तो मैं नानी के सोते ही जाग जाती थी!मैं और नानी अक्सर बरोठे में ही सोते थे क्योकि यहाँ पर सामने वाले  बगीचे से होकर ठंडी और सुगन्धित हवा आती रहती थी साथ ही बरोठे में खुलने वाली छोटी सी खिड़की से आने वाली हवा में तो तरह-तरह के फूलों की खुशबू भी शामिल होती थी ।
नानी पलंग पर सोतीं और मैं पास ही चटाई पर,,,,नानी के सो जाने पर खिड़की से कूदकर गिलहरियाँ चटाई तक आ जाती थीं और कभी-कभी नेवले भी…। एक नन्हा नेवला खिड़की से झाँक कर देखता और झट से नीचे कूद आता मैं उसे देखकर आँखे मूँद लेती थी ।मेरी जरा सी हरकत देखते ही वो भाग खड़ा होता। पहले वो दूर से ही खड़े होकर गौर से देखता मैं जानबूझ कर उसे अनदेखा  कर देती और वो झट से  फिर आ जाता मेरे पास……!
नेवले बाहर भागते तो मैं भी उनके पीछे-पीछे चलती जैसे ही वो पलटकर देखता मैं मूर्ति की तरह शांत खड़ी  हो जाती  जल्दी ही वो समझ गये कि मैं उन्हें नुकसान पहुँचाना नही चाहती और हम दोस्त बन गये । मेरे कई सारे ऐसे दोस्त थे जिनमे गिलहरियाँ,नेवले,गौरैयाँ और तोते भी शामिल थे ।
……..अब तो हर दोपहर का यही क्रम बन गया था।नानी के सो जाने पर मैं खंडहर की खिड़की को चुपके से पूरा खोल देती और ये सभी खिड़की से कूदकर आ जाते।मैं नानी से छुपकर इन सभी को हर दोपहर दावत देती थी हाँ जब दाना पानी को लेकर इनमे आपस में झगड़ा हो जाता तॊ शोर के कारण नानी जग जाती थी फिर फटकार के साथ ही दो चांटे मेरे लगाती और सारी महफिल उजाड़ देती थी ।
वो भी क्या दिन थे जब अकेले होकर भो कभी अकेलापन महसूस नही हुआ और अब परिवार और इतने सारे मनोरंजन के साधन से  घिरे होकर भी खोया-खोया मन लगता है।।
मैं नानी के साथ बिलकुल अकेली थी उनकी दुनिया बहुत बड़ी थी ढेर सारे पड़ोसी उनसे ढेर सारी बातें करते थे मगर मुझे ना तो किसी से दोस्ती करने देती थी और ना ही कोई खेल खेलने देती । बचपन में मुझे ब्राह्मण होना किसी सजा से कम नही लगता था मोहल्ले में ढेर सारे बच्चे थे ललिता,कृष्णा, रेखा,सुनीता,मेहनाज,फरहीन,शवा सब खेलते रहते तरह-तरह के खेल ..”जब कभी नानी से इनके साथ खेलने के लिए पूछती तो वो कहतीं ‘इन बच्चों के साथ तुम नही खेल सकती ये लुहार,माली,मौर्य,लोधी,और मुसलमान हैं😒फिर क्या मेरे पास उनसे आज्ञा लेने का कोई उपाय ही नही बचता था ।।
इस घुटन से बचने के लिए मैंने अपनी अलग ही दुनिया बसा ली ।अब नानी के घर के आस-पास बसे सारे फूल तितली,पेड़-पौधे,पक्षी मेरे दोस्त थे ।
नानी से छुपकर सुनसान दोपहरी में उनके साथ समय बिताकर मैंने उनका भरोसा जीत लिया था ।अब मेरे पास ढेर सारे दोस्त थे ‘ऐसे दोस्त जिन पर नानी की दुनियाँ का जाति-पाति वाला कानून लागू नही हो सकता था’…….!!
मैंने अपनी ख़ुशी अपनी दुनियां में ढूँढ ली थी ।

#यादों_के_झरोखे_से#े

#मीनाक्षी वशिष्ठ
नाम->मीनाक्षी वशिष्ठ
 
जन्म स्थान ->भरतपुर (राजस्थान )
वर्तमान निवासी टूंडला (फिरोजाबाद)
शिक्षा->बी.ए,एम.ए(अर्थशास्त्र) बी.एड
विधा-गद्य ,गीत ,प्रयोगवादी कविता आदि ।

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