घर की माली हालत ठीक नहीं थी।अकेले पिता की कमाई से पूरा नहीं पड़ता था,तो तय हुआ कि माँ भी काम करे। सो माँ को काम तो मिल गया थोड़े प्रयास के बाद,परंतु बाहर जाना पड़ा ट्रेनिग के लिए..तो अब घर की सारी जिम्मेदारी नन्हीं अरुणा के नाजुक कंधों पर आन पड़ी। पिता और तीन छोटे भाई-बहनों की देखभाल,चूल्हा-चौका वगैरह। पिता भी उसका हाथ बंटाते इन कार्यों में।
स्कूल से आकर रोटी-पानी करती, सबको खिला-पिलाकर बर्तन-भांडे मांजना,झाडू-बुहारी वगैरह..,और खोली में एक छोटा–सा,उस पर भी धूल-धुएँ से भरा बल्ब लटका रहता तो उसी के पीले-मट्मैले-से प्रकाश में सब कुछ निपटाती थकी-थकी,उदासी और निरुत्साह में पगी..। सुबह तो स्कूल की जल्दी रहती थी न,तो अधिकांश कार्य शाम को ही निपटाती थी। नहीं,ऊब या थकान काम से उतनी नहीं होती थी। काम में तो वह माँ के साथ भी हाथ बंटाती थी ही, वह तो होती थी माँ के बिना रीते घर के सूनेपन से।
उस शाम भी बाजार से किराने का सामान लेकर लौटती यही सब करने के बारे में सोचते घर में पैर रखते ही उसे लगा कि-‘आज तो खोली कैसी जगमगा रही है! सुनहरे-चमकीले प्रकाश से भरी लबालब,बल्कि सुनहरा प्रकाश अब तो खोली के बाहर भी बहने लगा है..रिस रहा है !’
चौंककर अरुणा ने सिर ऊपर उठाकर देखा,वही छोटा-सा धुंआया—मटमैला बल्ब ही तो जल रहा था केवल ! फिर भी उसे ऐसा क्यों महसूस हो रहा है जैसे एक अदभुत–अलौकिक-दिव्य रोशनी भरी हुई हो घर में ? और कोना-कोना जगमगा रहा है घर का !
‘अरे हाँ……!!!,माँ जो आ गई है घर, आज अपनी ट्रेनिंग पूरी करके।’
#चेतना भाटी
परिचय : इंदौर में बसी हुई चेतना भाटी की साहित्य की विभिन्न विधाओं व्यंग्य,लघुकथा और कहानी आदि में अब तक आठ कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। बीएससी,एमए और एलएलबी तक शिक्षित हैं। विभिन्न स्थानीय और मप्र लेखक संघ (भोपाल) द्वारा काशीबाई मेहता सम्मान आपने पाए हैं। इंदौर लेखिका संघ में उपाध्यक्ष चेतना भाटी के व्यक्तित्व-कृतित्व पर लघुशोध सहित कथा-कहानी पर पीएचडी शोध प्रबंध में शामिल है। इनकी रचनाओं का पंजाबी-मराठी में अनुवाद हुआ है तो आकाशवाणी इंदौर पर वार्ताकार होकर नवसाक्षरों के लिए भी लेखन करती रही हैं।