इस अंधी दौड़ में हम स्वयं से प्रश्न करना ही भूल गए । क्या हमने स्वयं से प्रश्न किया कि आज भी समाज में बुद्धिबल से ज़्यादा बाहुबल का बोलबाला क्यों है? क्यों हमारे लोग लगातार अपनी नैतिकताएँ खोते जा रहे हैं ? क्यों अब भी समाज में लोग एक-दूसरे से आगे बढ़ने के लिए छल-कपट और धोखेबाज़ी का सहारा लेते हैं? क्या भारत में संस्थाएँ आम आदमी की भलाई एवं सुरक्षा के लिए कार्य करती हैं ? या फिर अमीर लोगों की पिछलग्गू बनी हुई हैं? हमने ऐसे कई प्रश्नों का जवाब ढूँढना ही बंद कर दिया और एक अंधी दौड़ में लगातार दौड़ते और लोगों को कुचलते जा रहे हैं ।
अगर पुलिस प्रशासन की ही बात कर लें तो आम जन में इसके प्रति सुरक्षा की भावना कम जबकि भय की भावना अधिक व्याप्त रहती है । भ्रष्ट लोगों की यह जमात (मात्र कुछ ही लोगों को छोड़कर) पूँजीपतियों और ताक़तवर लोगों की चमचागिरी की मिसाल बन चुकी है । ग़रीब और कमज़ोरों से हमेशा डाँट-डपटकर बात करना और अमीरों के तलवे चाटते रहना, इसकी फ़ितरत बन चुकी है । यह लोगों को सुरक्षा प्रदान करने के अपने वास्तविक उद्धेश्य से भटककर अपराधियों के साथ साँठ-गाँठ करने और ग़रीबों को लम्बे क़ानूनी मामलों में उलझाने का भय दिखाने का कार्य करने लगी है ।
भारत के संविधान में अनुच्छेद 17 स्पष्ट रूप से अस्पृश्यता को अपराध मानता है किन्तु क्या वास्तव में महान भारत के लोग अब तक इस अनुच्छेद को पूर्णत: अंगीकृत कर सके हैं ? क्या आज भी तथाकथित महान भारत में कई जातियों को खुले तौर पर अस्पृश्य नहीं माना जाता ? यह भारत का अत्यंत दुखद आचरण है जो भारत की हर प्रकार की प्रगति को शर्मसार करता है । इसके सामने हमारी हर प्रकार की बुद्धिजीविता कलंकित हो जाती है । क्या आज़ादी के समय इस अस्पृश्यता के ख़त्म होने के सपने इन जातियों ने अपनी आँखों में नहीं संजोय होंगे ? और अब, ये सपने जब टूट रहे हैं, तब क्या ये दो धारी तलवार बनकर सामने आ सकेंगे ?
वर्तमान में तथाकथित सवर्ण समुदायों के द्वारा किए जा रहे ‘भारत बंद’ में भी टूटते भारत की तस्वीर नज़र आ रही है। यह बताता है कि कैसे भारत के ताक़तवर और घमंडी लोग अपने ही लोगों पर अपनी सत्ता को थोपना चाहते हैं मगर इनको यह मालूम नहीं कि इनके ये घटिया क्रियाकलाप भारत की तस्वीर छिन्न-भिन्न करने में ही योगदान देंगे । हज़ारों वर्षों से दिमाग़ों में भरा हुआ ज़हर पहले आगज़नी और सामूहिक हत्याओं के रूप में सामने आता था और अब ‘भारत बंद’ के रूप में सामने आ रहा है, जिसे सीधे तौर पर वर्गीकृत भारत कहना ही प्रासंगिक होगा ।
जब किसी व्यक्ति के सपने टूटते हैं तब वह स्वयं भी टूटने लगता है, अपनी क्षमताएँ खोने लगता है और कोसने लगता है उन सब परिस्थितियों को जो अनचाहे ही उसके सपनों के सामने आकर बाधा बनकर खड़ी हो गई ।
क्या भारत भी टूट रहा है ? इस बात में मुझे कोई शक़ नहीं कि भारत भौगोलिक रूप से अभी अखण्ड रहेगा किन्तु मुझे इस बात का आभास है कि भारत के लोगों के सपने टूट रहे हैं । कुछ लोग भारत के व्यक्तियों में केवल उन व्यक्तियों को शामिल करते हैं, जो लगातार आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से ऊँचे पायदानों पर बने हुए हैं और वे इन्हीं लोगों को आधार मानकर भारत के सपनों की प्रगति का विवेचन भी करने लगते है लेकिन मेरे भारत के लोग तो आज भी भूखे हैं। मेरे भारत के लोगों में तो एक छोटी सी गली के मुहाने पर एक ओर खड़ी बड़ी सी गाड़ी के पहिए के पास बैठकर भुट्टे बेचने वाली अम्माँ आती है, किसी मकान की बाहर निकली हुई छत के एक कोने में छाता पकड़कर बरसते हुए पानी में साइकिल पर समोसा बेचने वाले लोग आते हैं और वे रिक्शे वाले लोग भी, जिन्हें सुबह के खाने के बाद पता नहीं होता कि शाम का खाना मिलेगा या नहीं ।
आख़िर मैं कैसे मान लूँ कि मेरे भारत के लोगों के सपनों की प्रगति हो रही है ? एक ओर जहाँ हमने लोगों को बड़े-बड़े रेस्टोरंट्स में झूठी शान के नाम पर अतिरिक्त टिप देते हुए देखा है और उन्हीं लोगों को रेस्टोरेंट के बाहर एक कोने में बैठे चप्पल जोड़ने वाले मेरे भारत के नागरिक से दस-दस रुपये की बहस करते देखा है । आख़िर हमें हो क्या गया है? हम हमारी नैतिकताएँ कहाँ खोते जा रहे हैं ? हमारे शहरों के बंद मकानों में रहने वाले लोग कैसे वहाँ सफ़ाई करने वाली लड़कियों को पैसों का लालच दिखाकर उनके शरीर को नौंचते हैं, कैसे लोग ग़रीबों को नौकरियों का स्वप्न दिखाकर उनसे पैसे ऐंठकर भाग जाते हैं और भागने वाले भी इस तथाकथित महान भारत के महान निवासी ही होते हैं ।
यह सम्भव है कि कई लोगों को यह लेख पढ़कर एक छोटी सी समस्या का ही अहसास हो किन्तु इस कथित छोटी सी समस्या का आघात उस ग़रीब व्यक्ति के लिए कितना घातक होता है, हम उसकी समानुभूति कदापि नहीं कर सकते । एक ग़रीब का विश्वास टूटने के साथ ही उसके सपने भी टूटते हैं और उसके सपनों के साथ टूटती है, उसके अस्तित्व की डोरी भी, तब उसकी आँखों में लाल अहसास उभरता है और तब उस ग़रीब को इस तथाकथित महान भारत की मिसाल समझाना विश्व का सबसे कठिन कार्य हो जाता है । अपनी आधी टूटी हुई झोंपड़ी में बैठकर अपनी बेटी की लूटी हुई अस्मिता को अपने आँचल से समेटती हुई माँ को कैसे आप इस महान भारत की प्रगति को समझा सकेंगे ? मैं इसी प्रश्न का जवाब ढूँढते हुए इस लेख को लिख रहा हुँ।
मेरे भारत के लोगों के सपने टूट रहे हैं और मुझे डर है कि ‘भारत’ इन सपनों से निकलते लावा की चपेट में न आ जाये। हमारी सारी सामाजिक नैतिकताएँ अब निजी नैतिकताओं में बदल गई हैं । हम सिर्फ़ स्वयं आगे बढ़ना चाहते हैं, चाहे इसके लिए हमें किसी को भी रौंधना पड़े या किसी को भी कुचलना पड़े ।
आख़िर कब तक हम टूटते सपनों की चोट सहते रहेंगे ? आख़िर उसका क्या उपाय होगा कि हम हमारे लोगों में उन नैतिकताओं का विकास कर सकें, जिनसे हमारी सामाजिक ज़िम्मेदारियाँ, हमारी निजी कुटिल लालसाओं से बढ़कर हो जायें? क्या इसका एक विकल्प ‘साम्यवाद’ होगा? मैं नहीं जानता लेकिन समाजवाद में मेरी आस्था मुझे इस बात का ज़रूर अहसास कराती है कि वर्तमान भारत धीरे-धीरे घातक वैचारिक वर्गीकरण की चपेट में आ रहा है और टूटते सपनों की गहरी होती धार, इस प्रकार चमक रही है जैसे कई वर्षों से सूखते होंठों की प्यास एक ही साथ बुझाने को आतुर हो ।
क्या वर्तमान भारत की प्रगति के पास उस भुट्टे बेचने वाली अम्माँ और उसके कुपोषित बच्चों की आँखों में सपने पैदा करने की ताक़त होगी? या फिर झूठा दंभ भरने वाले तथाकथित महान भारत के लोगों में शहरों के बंद मकानों में बच्चियों की उखड़ती साँसों को सुन पाने की क्षमता होगी ? या फिर हम जिस कचरे के सामने से नाक बंद करके निकल जाते हैं, उसी कचरे में प्लास्टिक की बोतलें और खाना ढूँढते बच्चों और बूढ़ों से नज़रें मिलाने की हिम्मत, हममें से कभी किसी की होगी? मुझे इंतज़ार है कि आख़िर कब इन टूटते सपनों का एक विशालकाय मलबा बनकर तैयार होगा और उसमें से कब वो ज्वालामुखी फूटेगा, जिसकी चपेट में हर वो व्यक्ति आएगा, जिसने अपने सपनों को पूरा करने के लिए दूसरों के सपनों को इस मलबे का भाग बनाया होगा ।
परिचय:नाम – बेनी प्रसाद राठोरस्थान- बाराँ (राजस्थान)शिक्षा- B.Sc. (गणित)कार्यक्षेत्र- विध्यार्थी