Read Time5 Minute, 31 Second
मन के मनके: काव्य-संग्रह
◾◾◾◾◾◾◾◾◾◾
कवियित्री : डॉ. पुष्पा जोशी
संस्करण : प्रथम, हार्डबाउंड 2018
प्रकाशक : अमृत प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ : 110
मूल्य : 250/- रूपये मात्र
***************************
कबीरदास जी ने कहा था –
माला फेरत जग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर ।।
निःसंदेह हाथ में माला लेकर घुमाने से मन के भाव नहीं बदलते। न ही मन को शान्ति मिलती है। कबीर नें कहा था, हाथ की माला को छोड़कर मन के मनकों को बदलना होगा।
डॉ. पुष्पा जोशी जी कहती हैं –
मन का मन, मनका भया
मन का तन, मनका भया
पाकर तन-मन का मनका
जग मनका-मनका भया
कबीर के भावों को आत्मसात कर शायद यही कहना चाहा है पुष्पा जी ने कि मनका न कर में रहे न मन में। कर्तव्य में समाहित हो जाए मनका और जीवन समर्पित हो उस मालाकार माला को जिसमें समय की विडंबनाओं व सांस्कृतिक चेतना की पड़ताल हो। सुख-दुःख का व्यौरा हो और उदासी के साथ उल्लास का संचार हो। प्रेम भी हो और मानव का मानव के प्रति आस्था में विशवास हो।
इस संग्रह में छंदमुक्त कविताओं व चतुष्पदी के 109 मनकों की माला बनाई है पुष्पा जी नें जिसमें 53 कविताओं और 56 मुक्तकों को गूंथा है। सरस्वती वंदना के बाद आपने कभी देवभाषा संस्कृत कभी हिंदी में भावों को संजोया है परन्तु आपका उर्दू प्रेम भी परिलक्षित होता है रचनाओं में।
भारतं भावयामो वयं सादरं में आपने भारतवर्ष की भावप्रवण स्तुति की है। भिक्षाटन कविता में आपने बुद्ध के मन की उधेड़बुन को दिखलाते हुए उस दर्शन की विवेचना की है जहाँ संशय दिखलाई देता है।
बुद्धम् शरणम् गच्छामि
घोष पड़ा मेरे कानों में
उद्घोष करते अनुयायी मेरे
मुझमे ईश्वरत्व देखने लगे हैं
पर मैं ….. ?
बस यही प्रश्नचिन्ह है सार इस रचना का। बुद्धम् शरणम् गच्छामि का उद्घोष क्या मार्ग बन सका मुक्ति-पथ का या केवल भिक्षाटन का साधन बनकर रह गया है ?
गंगा की गुहार में भी आपने कठघरे में खड़ा कर दिया है आधुनिक भागीरथों को। चेतावनी भी दी है –
रे भागीरथ ! धिक्कार है इन्हें
माँ कहकर माँ पर अत्याचार ?
मैं माँ हूँ …..
और दो पंक्तियों में जो कह दिया वह एक ग्रन्थ के बराबर है।
फिर कमंडल में समा जाऊँगी
ब्रह्म-कमंडल में समा जाऊँगी ।
अपनी रचनाओं में ऐतिहासिक पात्रों का जिस तरह से प्रयोग किया है पुष्पा जी ने वह प्रभावी होने के साथ-साथ पाठक की आस्था व विश्वास को पुष्ट करता है। अपने व्यक्तित्व के अनुरूप आपकी भाषा भी सहज, सरल है जिसमें कविता का सौन्दर्यबोध अधिक निखर कर सामने आता है।
दूसरे भाग में आपने चतुष्पदी के माध्यम से इन्द्रधनुषी छटा में भावों के रंग बिखेरे हैं। सर्व-धर्म समभाव लिए यह मुक्तक बानगी है =
सब कुछ मुझमें समाया है
हर रंग मुझको भाया है
जन्मी हूँ सृष्टि में तेरी जबसे
सभी धर्मों को अपने भीतर पाया है
हलके-फुल्के भावों को भी आपने सहजता से उच्च अर्थों में बांधा है।
तुम बिन सूनी मोरी अटरिया
कित गये मोहे छोड़ साँवरिया
पल-छिन मोहे अब चैन न आये
कर दऔ तुमने मोहे बाबरिया
भक्ति की पराकाष्ठा दिखलाई देती है इन पंक्तियों में।
सुरक्षा-प्रहरिओं पर कही ये पंक्तियाँ देशप्रेम की अलख जगाती लगती हैं,
सज़दा करो उन्हें कि वे देश पर कुर्बान होते हैं
सीमा पर सिपाही यही, शत्रु का फ़रमान गोते हैं
य़क बार ख़ुद को जगह उनकी रख देखो यारों !
सीमाओं के ये प्रहरी, हमारे निगहवान होते हैं
यह मुक्तक शायद पाठकों के लिए लिखा है पुष्पा जी नें –
मित्रों ! मान है, सम्मान है
माँ सरस्वती का वरदान है
सार्थकता मेरी है तब तक-
आपको जब तक पहचान है
हम तो यही चाहेंगे की माँ सरस्वती का वरदान सदैव आप पर बना रहे और इसी तरह से आपकी सुलेखनी काव्य-सागर में अनवरत् रसधार उंडेलती रहे, रसिक पाठकों को काव्य-रस सुलभ होता रहे। इस माला में अभी मनके कम लग रहे हैं। अनुरोध है शीघ्र ही दूसरी सुमरनी भी आये हमारे हाथों में मन के मनके बन कर। अशेष बधाई व अनन्त मंगलकामनाओं सहित….. एक पाठक।
#मुकेश दुबे
Post Views:
430