इश्क-ए-कोहसार से,
कूद के उतरती है
ये जिस्म की नदी।
झरने-सी गिरती,
कूद-फाँद करती
उछल-उछल बहती।
फिर वक्त के मैदान में,
खामोशियों की झील-सी..
मर्यादा के पाटों में,
मन्द-मन्द बहती।
और शिद्दत की कभी,
बरसातों में अक्सर
पाट तोड़ बहती।
पाने को अंत में,
रूह-ए-समंदरम्।
रूह-ए-समंदर से,
उठती फिर काली घटा..
प्यासी हवाओं संग,
टकराती कोहसार से।
फिर बरसता जिस्म ये,
फिर निकलती ये नदी।
आखिर में पा जाने को,
बस रुह-ए-समंदरम्
इक रुह-ए-समंदरम्।
इश्क-ए-कोहसार से
ताउम्र यूँ कूदती..
ये हुस्न की नदी।
ये जिस्म की नदी….।
#अंकुर नाविक
अंकुर जी एक अच्छा प्रयोग
nice
Achhi rachna