एकाकीपन और गुमनामी झेल रहे प्रख्यात साहित्यकार ‘महरूम’ !
मोबाइल पर एक संदेश मिलता है : “बीमारी, वृद्धावस्था ,असहायता और एकाकीपन के कारण आपके पास बैठ बतियाने की ललक अधूरी रह जाती है !” – इस संदेश को किसी बूढ़े की बुढ़भस समझने की भूल नहीं कर सकता था मैं ।
यह तो हिंदी साहित्य के एक वटवृक्ष की पीड़ा है । संदेश भेजने वाले कोई अन्य नहीं, देवेंद्र पाठक महरूम हैं ,जिनकी आठ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं , दुष्यंत कुमार सम्मान सहित कई सम्मान कटनी के जिनके घर के एक कोने में अदब से सजे हैं ।
दलित लेखन के हो-हल्ले से पहले ही 1986 में “अदना सा आदमी: एक दलित का उपन्यासात्मक रिपोतार्ज” पुस्तक चर्चित हो चुकी थी । सारिका , अन्यथा, ज्ञानोदय से आकाशवाणी तक जिनकी कविताओं और गजलों की धूम रही , आज उनकी आवाज में एक व्यथा थी ,जो सीधे मेरे अंतर्तम में उतर रही थी ।
40 वर्षों तक हजारों छात्रों को अपने संतान की तरह मानने वाले सेवानिवृत्त शिक्षक ‘ महरुम’ आज वृद्धावस्था की दहलीज पर खराब स्वास्थ्य के कारण उन चेहरों को याद करते हैं, जिन्हें देखकर कभी कहा करते थे : “कौन कहता है कि मैं निस्संतान हूँ , तुम सब मेरे बच्चे हो !”
विनीत स्वर में मैं उन्हें कहता हूँ कि मातृभाषा संस्थान की तरफ से मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ ? बड़े ही संयत स्वर में वे कहते हैं, “ तुमसे बात करने की लालसा थी, वह पूरी हो गई …और कुछ नहीं चाहिए । तुम्हें हिंदी के लिए काम करते देख अपनी जवानी याद आती है ।”
मैं भी विह्वल होकर कहता हूँ : “मैं और अर्पण जैन आपके बच्चे ही तो हैं । आपकी हिंदी सेवा के लिए हम कृतज्ञ हैं !”
शायद रो पड़े हैं वे ! कहते हैं – “तुम्हारी माई का मोतियाबिंद बढ़ गया है …पैसे की कमी नहीं हमें …..बस बेटा.. यह अकेलापन सालता है ।”
हमारे बीच एक चुप्पी पसर जाती है । फिर, मैं ही अनायास पूछ बैठता हूँ – “साहित्यिक समारोहों, कवि सम्मेलनों में अब क्यों नहीं जाते आप ? थोड़ा मन बदलेगा !”
काँपते पर थोड़े ऊँचे स्वर में वे कहते हैं : “कवि सम्मेलनों पर कोफ़्त है मुझे …कोई स्तर ही नहीं । चंद ही मिनटों में पाकिस्तान को नेस्तनाबूद कर देते हैं ,और उसके बाद जाम छलका कर और भी सिद्ध कवि बन जाते हैं।”
सोचता हूँ कि हिंदी के इस योद्धा को आज के हालात पर दुःख क्यों न हो ? ये वही तो हैं जिन्होंने अंग्रेजी के शब्द तो दूर की बात, अंग्रेजी के अंकों तक को स्वीकार नहीं किया । ..ये वही हिंदी शिक्षक हैं, जिन्होंने विद्यालय की उपस्थिति पंजिका में अंग्रेजी में p या a लगाने से अस्वीकार कर दिया था और धन या ऋण चिह्न लगाते रहे ।
वक्त-वक्त की बात है। किसानों, मजदूरों की कविता लिखने वाले महरूम 2012 से सर्वाइकल से परेशान हैं। कभी इन्होंने लिखा था: “मेहनतकशों का जिस्म पसीने की नदी है , पलता है जिसमें जोंक सा एक सेठ का चेहरा ।” आज कदाचित अपने बारे में ही ये लिखते हैं : “हैं करोड़ों चेहरे पर मर्सिये लिक्खे हुए ।
थोड़ी सी ग़ैरत हो गर ‘महरूम’ पढ़कर देखिए ।।” मातृभाषा उन्नयन संस्थान इनके साथ खड़ा है !
कमलेश कमल,
साहित्य संपादक,