जब धरती के गहन, गंभीर और रत्नगर्भा होने के प्रमाण को सत्यापित किया जाएगा और उसमें जब भी मालवा या कहें इंदौर का उल्लेख आएगा, निश्चित तौर पर यह शहर अपने सौंदर्य और ज्ञान के तेज से बख़ूबी स्वयं को साबित करेगा। हिन्दी और अन्य भाषाओं में इंदौर के पत्रकारों का एक अलग ही स्थान है। जिस शहर को मध्यप्रांत की पत्रकारिता का केंद्र या कहें नर्सरी ही कहा जाता हो, उस शहर का बाशिंदा होना भी अपने आप में गर्व का विषय है।
यह गौरव दिलवाने में जिन सभी हस्तियों के पसीने से पत्रकारिता की विशाल इमारत की नींव की सिंचाई की गई हो, उनमें से एक नाम राजेन्द्र माथुर साहब का भी है।
देश में स्वच्छता में सात बार प्रथम पायदान पर रहना जिस तरह से गौरवान्वित करने का कारण है, वहीं यहाँ के पत्रकारों को भी अपने पूर्वजों या समकालीन पत्रकारों के कारण गौरव की अनुभूति होती है। नईदुनिया जैसे अख़बार ने इस शहर को समाचारों की निष्पक्षता और भाषा की शुद्धता का पाठ पढ़ाया है। भविष्य में जब भी भारतीय पत्रकारिता का मूल्यांकन किया जाएगा या इसका इतिहास लिखा जाएगा, तब बिना इंदौर के विवरण के वह भी अधूरा ही माना जाएगा। स्वतंत्र भारत में हिन्दी पत्रकारिता को स्थापित करने वाले स्तम्भ के रूप में राजेन्द्र माथुर जी का नाम अग्रणी है, जिन्होंने अपना पूरा जीवन हिन्दी की पत्रकारिता के लिए समर्पित कर दिया। आपका जन्म 7 अगस्त, 1935 को मध्य प्रदेश के धार जिले की बदनावर तहसील में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा धार, मंदसौर एवं उज्जैन में हुई। उच्च शिक्षा के लिए वे इंदौर आए, जहाँ उन्होंने अपने पत्रकार जीवन के महत्त्वपूर्ण समय को जिया। इंदौर के पास बदनावर में जन्मे और इंदौर को कर्मस्थली बना कर मालवा अँचल के इस प्रतिभावान पत्रकार ने यह प्रामाणित कर दिया कि ऊँचाई प्राप्त करने के लिये महानगर में पैदा होना आवश्यक नहीं है। इंदौर से प्रकाशित नई दुनिया से अपनी पत्रकारिता यात्रा आरंभ करने वाले श्री माथुर राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक नवभारत टाइम्स के सम्पादक बने। आरंभ से अपनी आखिरी साँस तक वे ठेठ हिन्दी पत्रकार बने रहे।
उस दौर की पत्रकारिता मूल्य आधारित पत्रकारिता रही, मूल्यों के साथ किसी भी तरह का समझौता पत्रकारों को भी बर्दाश्त नहीं होता था।
‘नई दुनिया’ के संपादक राहुल बारपुते जी से माथुर साहब की पहली मुलाक़ात देश के ख़्यात व्यंग्यकार शरद जोशी जी ने करवाई थी। बाबा से अपनी पहली मुलाक़ात में माथुर साहब ने समाचार पत्र के लिए कुछ लिखने की इच्छा जताई थी। उसके बाद अगली मुलाक़ात में आप अपने लेखों का बंडल लेकर ही बारपुते जी से मिले। बाबा के अग्रलेख के बाद अनुलेख लिखने का सिलसिला लंबे समय तक चला। सन् 1955 में ‘नई दुनिया’ की दुनिया से जुड़ने के बाद आप 27 बरस तक ‘नई दुनिया’ परिवार का हिस्सा रहे। माथुर साहब अंग्रेज़ी के जानकार रहे पर हिन्दी पत्रकारिता ने उन्हें बेहद संजीदगी से स्वीकार कर लिया। सन् 1965 में बदलाव करते हुए आपने ‘पिछला सप्ताह’ नामक स्तम्भ लिखना प्रारंभ किया।
फिर माथुर साहब गुजराती कॉलेज में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक के रूप में कार्यरत रहे। सन् 1969 में माथुर साहब प्राध्यापक की नौकरी छोड़ पूरी तन्मयता के साथ ‘नई दुनिया’ की दुनिया में रम गए।
यहाँ तक कि यात्रा में माथुर साहब के प्रारब्ध का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा कि आप नईदुनिया से जुड़े और अख़बारी काग़ज़ और क़लम के बीच अपनी नई दुनिया बना ली।
बतौर संपादक माथुर साहब का मिज़ाज बाकमाल रहता था। उनके समकालीन व सहकर्मी पत्रकार बताते हैं कि एक प्रयोगधर्मी इंसान होने के साथ काम करने वाले साथियों के साथ हमेशा शिक्षक वाली भूमिका में रहे। उनके आस-पास रहने वालों का बौद्धिक स्तर बढ़ जाया करता था।
सन् 1975 के आपातकाल के दौरान सरकार ने जब प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का प्रयास किया, तब माथुर साहब ने ‘शीर्षक’ के नाम से सरकारी प्रतिक्रिया की परवाह किए बिना धारदार आलेख लिखे। सन् 1980 से उन्होंने ‘कल, आज और कल’ शीर्षक से स्तंभ लिखना शुरु किया। 14 जून, 1980 को राजेन्द्र माथुर प्रेस आयोग के सदस्य चुने गए। इसके बाद सन् 1981 में उन्होंने ‘नई दुनिया’ के प्रधान संपादक के रूप में पदभार संभाला। प्रेस आयोग का सदस्य बनने के पश्चात टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संपादक माथुर साहब तो गिरिलाल जैन के संपर्क में आ गए और उन्होंने माथुर जी को दिल्ली आने का सुझाव दिया। लंबे समय तक सोच-विचार करने के पश्चात आपने दिल्ली का रुख किया। सन् 1982 में नवभारत टाइम्स का प्रधान संपादक बन कर आप दिल्ली पहुँच गए।
दिल्ली आने के पश्चात आपने ‘नवभारत टाइम्स’ को दिल्ली, मुंबई से निकालकर प्रादेशिक राजधानियों तक पहुँचाने का काम किया। साथ ही, ‘नवभारत टाइम्स’ को हिन्दी पट्टी के पाठकों तक पहुँचाते हुए लखनऊ, पटना एवं जयपुर संस्करण भी प्रकाशित किए। यही समय था, जब आपको राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली और एडिटर्स गिल्ड का प्रधान सचिव भी बनाया गया।
श्री माथुर के लेखों के कई संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें प्रमुख हैं- गांधी जी की जेल यात्रा, राजेंद्र माथुर संचयन- दो खण्डों में, नब्ज़ पर हाथ, भारत : एक अंतहीन यात्रा, सपनों में बनता देश, राम नाम से प्रजातंत्र।
यकीनन राजेन्द्र माथुर पत्रकारिता का ऐसा अध्याय रहे जो पत्रकारिता जगत् की भूमध्य रेखा बन गया। विमर्श इस बात पर होने लगा कि माथुर साहब के दौर की पत्रकारिता और आज की पत्रकारिता।
मानक, मूल्य और निष्ठा जैसे शब्दों की स्थापना वाली पत्रकारिता के दौर को लोग माथुर साहब की पत्रकारिता का दौर कहते हैं। लगभग दो शताब्दियों तक का सफ़र तय करने वाली हिन्दी पत्रकारिता, आज अपने गौरव से सुसज्जित भी है तो वहीं कालांतर में हुए बदलाव से अचंभित भी।
अभी तक पत्रकारिता का केंद्र केवल राजनीति के गलियारों की चहलकदमी, अपराध व कारोबार के अलावा कहीं और रहा भी नहीं, जिन मुद्दों से आम जनमानस का जुड़ाव संभव हो सके। महानगरों के गलियारों के इर्द-गिर्द घूमती पत्रकारिता देश की अस्सी फ़ीसदी आबादी को पीछे छोड़ती नज़र आती है। किन्तु राजेन्द्र माथुर जी ने आँचलिक पत्रकारिता के उन्नयन के लिए बहुत कार्य किए। नवभारत टाइम्स में रहते हुए आँचलिक संस्करण प्रकाशित किए, गाँव-देहात के संवाददाताओं की ख़बरों को बड़ा स्थान दिया।
यह सत्य है कि शहरी पत्रकारिता को गाँव की याद तभी आती है, जब कोई बड़ा हादसा हो या फिर कोई बड़ी घटना या राजनेताओं का दौरा होता है वर्ना बड़ा पत्रकार कभी नज़र भी नहीं डालता गाँव की तरफ़, न मीडिया संस्थान ध्यान देते हैं गाँव में बसने वाले आँचलिक पत्रकारों की ओर। किन्तु माथुर साहब की सरलता इस बात से भी उल्लेखित होती है कि अक़्सर अच्छी ख़बरों पर माथुर साहब स्वयं संज्ञान लेकर उन आँचलिक पत्रकारों को चिट्ठी लिखकर बधाई देते थे, उनसे संवाद करते थे।
आज पत्रकारिता का मूल मक़सद है, मुनाफ़ा कमाना। मुनाफ़ा शहरी लोगों के बीच से होकर जाता है। आज पत्रकारिता कॉरपोरेट और शहरी लोगों का विशुद्ध खिलौना बनकर रह गई है। किन्तु माथुर साहब के दौर में भारतीय पत्रकारिता में किसानों और ग्रामीण क्षेत्रों की समस्याओं के लिए विशेष जगह रहती थी। इस दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार किसानों की बढ़ती आत्महत्या, ग़रीबी, अशिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था को मीडिया कवरेज मिलने से ग्रामीणजनों में पत्रकारिता के प्रति कृतज्ञ भाव था। पत्रकारिता की मुख्य धारा आज दिशा विहीन नज़र आ रही है। गोदी मीडिया, मोदी मीडिया, प्रेस्टीट्यूट जैसे न जाने कितने अशोभनीय अलंकरणों से पत्रकारिता को नवाज़ा जा रहा है, ख़ास कर हिन्दी पट्टी के लिए यह बहुतायात में हो रहा है। इसके पीछे बड़ा कारण मूल्यों से पत्रकारों की बढ़ती दूरी है।
9 अप्रैल, 1991 की मनहूस दोपहर को राजेन्द्र माथुर जी शरीर छोड़कर शब्द देह का रूप धारण कर गए। पर उनके साथ और ये कहें उनके बाद पत्रकारिता दो अलग दौर में विभाजित हो गई। पत्रकारिता के कालखण्ड को इस तरह विभाजित किया जा सकता है, जैसे राजेन्द्र माथुर के पहले की पत्रकारिता, राजेन्द्र माथुर के समकाल की पत्रकारिता, जिसे पत्रकारिता का राजेन्द्र माथुर युग कहा जाएगा, इसके बाद राजेन्द्र माथुर के बाद की पत्रकारिता। यानी राजेन्द्र माथुर साहब को पत्रकारिता की भूमध्य रेखा भी कहेंगे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
पत्रकारिता के राजेन्द्र माथुर के बाद वाले कालखण्ड में विश्वसनीयता, प्रामाणिकता और उर्वरकता जैसे मानकों का ह्रास हुआ।
अब पुनः पत्रकारों को माथुर साहब से शिक्षा लेते हुए तमाम मीडिया संस्थानों, मीडिया क्लबों, समितियों को पत्रकारिता के उन्मेष के लिए प्रमुखता से कार्य करना होगा।
प्रशिक्षण, कार्यशालाओं के साथ-साथ आर्थिक सबलता की दृष्टि से भी उन्हें मज़बूत करना होगा क्योंकि लोकतंत्र में अब जो कुछ भी श्रेष्ठ शेष है, वह उस नदी के प्रवाह पत्रकारिता के अवदान से रेखांकित होगा। समय रहते पत्रकारिता को मज़बूत और सबल नहीं बनाया गया तो रीढ़ विहीन पत्रकारिता मेरुदण्ड विहीन समाज का निर्माण करेगी, जिससे हम अपने ही अर्थों और अस्तित्व में बौने हो जाएँगे।
डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं लेखक
इन्दौर, मध्यप्रदेश
संपर्क: 9893877455 | 9406653005
ईमेल: arpan455@gmail.com
अंतरताना:www.arpanjain.com
[लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं]