गगन को छूने वाले भाव सारी मंडियों के हैं, कहीं से बूंद भर जल को खुले मुख सीपियों के हैं। हमेशा टूट जाते हैं जरा-सा दाब पड़ते ही, यहां जितने भी एलबम हैं सभी बस दफ्तियों के हैं। स्वयं अपनी ही बातों से मुकर जाता है कोई भी, कहूं क्या […]
काव्यभाषा
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