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आदमी आदमी न रहा,
कभी सब प्राणी मात्र थे।
फिर जंगल खत्म होते गए,
इंसान सभ्य होते गए…
स्वार्थ बढ़ता गया…।
अर्थ जितना बढ़ा…
सोच घटती गई,
हुए कमरे नए…
उसमें चीजें नई…।
भोर-दोपहर खरीदा,
और शाम सुरमई…!
बिक गया दीन…
ईमान इक भूख पर।
कितने अरमां दफन,
हैं इक रसूख पर…।
इस कदर आदमी,
आदमी न रहा…
जिन्दगी तो रही,
जिन्दा न रहा…।
कभी इंसानियत की खातिर खुद को मिटा,
कभी खुद ही बन बैठा है खुदा।
डरना कयामत से और बात है,
डराना इंसानियत को और बात है।
ये अंधी दौड़ और कब तक ?
तेरी तलवार,मेरा सिर कब तक ????
#निकेता सिंह `संकल्प`(शिखी)
परिचय : निकेता सिंह का साहित्यिक उपनाम-संकल्प(शिखी) है। जन्मतिथि- १ अप्रैल १९८९ तथा जन्म स्थान-पुरवा उन्नाव है। वर्तमान में वाराणसी में रह रही हैं। उत्तर प्रदेश राज्य के उन्नाव-लखनऊ शहर की निकेता सिंह ने बीएससी के अलावा एमए(इतिहास),बीएड, पीजीडीसीए और परास्नातक(आपदा प्रबंधन) की शिक्षा भी हासिल की है। आपका कार्यक्षेत्र-शिक्षण(शिक्षा विभाग) है। आप सामाजिक क्षेत्र में शिक्षण के साथ ही अशासकीय संस्था के माध्यम से महिलाओं एवं बच्चों के उत्थान के लिए कार्यरत हैं। लेखन में विधा-गीतकाव्य, व्यंग्य और ओज इत्यादि है। क्षेत्रीय पत्र- पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित होती हैं।
सम्मान के रुप में आपको क्षेत्रीय कवि सम्मेलनों में युवा रचनाकार हेतु सम्मान मिला है। आप ब्लॉग पर भी लेखन में सक्रिय हैं तो उपलब्धि काव्य लेखन है। आपके लेखन का उद्देश्य-जनमानस तक पहुँच बनाना है।
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Sat Dec 16 , 2017
शक्ति स्वरूपा दुर्गा थी वो अम्बा थी कल्यानी थी, रणचण्डी का रूप धरे वो झाँसी वाली रानी थी। कटि में बाँधे लाल काल-सी मैदां में वो उतर गई, तोड़ महल के सारे बंधन शाही वैभव से मुकर गई। उसे फिरंगी सेना की अब तो नींव हिलानी थी, रणचण्डी का रूप […]
Nice