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तू जिगर का टुकड़ा है मेरा,
कैसे तुझसे मैं अंजान बनूं।
तू वस्तु नहीं जान है मेरी,
भला कैसे मैं तेरा दान करूं ?
तुझसे महकता है मेरा घर-आंगन,
तुम्हीं से है मेरा यह जीवन।
मेरे जीवन का आधार,मेरा प्राण है तू,
भला कैसे मैं तेरा दान करूं ?
बस विदा करता हूं मैं तुझे नए घर को,
तू जा के उस घर को भी अब स्वर्ग बना।
पर तू न गुपचुप कोई दर्द सहना,
न खुद को अकेली-असहाय समझना।
मेरे लिए तो प्रभु का वरदान है तू,
भला कैसे मैं तेरा दान करूं ?
ससुराल में लगना पुष्प बन के महकने,
पर आती रहना मेरी बगिया में चहकने।
यहां अपने हैं सब तेरे,
रहती है तू सबके दिलों में।
तो भला एक पल में,
कैसे मैं तुझे पराया कर दूं ?
न कोई अनचाही चीज है तू,
न इस बाप पे कोई बोझ है तू।
मेरी दुनिया मेरा जहां है तू,
तुझे न मैं खुद से बेगाना करूं।
बांधता हूं तुझे एक नए बंधन में,
पर मैं न कभी तेरा दान करूं।
कर दूं जो दान तू हो जाएगी पराई,
किस अभागे ने है ये रीत बनाई?
तू है मेरे जीवन भर की कमाई,
फिर कैसे मैं तुम्हारा दान करूं ?
# मुकेश सिंह
परिचय: अपनी पसंद को लेखनी बनाने वाले मुकेश सिंह असम के सिलापथार में बसे हुए हैंl आपका जन्म १९८८ में हुआ हैl
शिक्षा स्नातक(राजनीति विज्ञान) है और अब तक विभिन्न राष्ट्रीय-प्रादेशिक पत्र-पत्रिकाओं में अस्सी से अधिक कविताएं व अनेक लेख प्रकाशित हुए हैंl तीन ई-बुक्स भी प्रकाशित हुई हैं। आप अलग-अलग मुद्दों पर कलम चलाते रहते हैंl
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