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हो स्वामी सखा समर्थ प्रभु
फिर भी लगी नाव किनारे नहीं..?
भँवर से निकालो मेरी नौका
तुझे छोड़ और है सहारे नहीं है..।
तुम तो करुणाकर हो प्रभुवर
शरणागत जन के तारक हो।
सृष्टि के सर्वस्व हो तुम
सृजक पालक संहारक हो॥
तुम ब्रह्मा बन करते रचना
तुम ही विष्णु करते जग पालन।
तुम रूद्र बन संहारक हो
तुम अखिल भुवन करते धारण॥
सब सन्तों ने है किया वर्णन
तुम परम दिव्य प्रभुवर पावन।
तुम आदि मध्य अन्त रहित
हे जगतवंद्य हरि मनभावन॥
द्रोपदी की रक्षा किये प्रभु
गीध गणिका अहिल्या तार दिए।
तारे तुम सधन कसाई को
प्रह्लाद का रक्षण भार लिए॥
ध्रुव को प्रभु उन्नत लोक दिए,
सब भगतों के हरि दुख हारे।
यह पतित अधम भी है आया
हे कृपा-सिन्धु तेरे द्वारे॥
जिनका हम नाम गिनाए हैं
हैं असंख्य कोटि उनसे नीचे।
इस वन-प्रसून की चाह है पर
प्रभु-कृपा-जल-बून्द इसे सींचे॥
तुम परम अलौकिक अनुपम पारस
हम लौह खण्ड हैं सड़े-गले।
हमको भी स्वर्ण बना दो तुम
करुणाकर कृपा करो हरे॥
जगत सरोवर में भगवन
गजराज सरीखा डूब रहा।
आरत की रक्षा करो प्रभु
अब हमें नहीं कुछ सूझ रहा॥
प्रिय अर्जुन के तेरे पराजय पर
सौ कौरव मौज मनाएंगे।
क्या तुम प्रसन्न रह पाओगे
जन करूणा पर पश्न उठाएंगे॥
हे राम रमो मेरे मन में तुम
दुनिया के भँवर में न अटकाओ।
हो शैशव में कोई चूक हुई
उसे ध्यान तुम मत लाओ॥
लहरों से निकालो मेरी नौका
हे दयासिन्धु किनारा मिले।
हो जाए सफल यह जीवन
मन में भक्ति के कमल खिले॥
इस दास की आस करें पूरे
हे अखिलेश्वर जय के स्वामी।
तुम तो त्रिभुवन के सब जानो
हे विश्वेश्वर प्रभु अन्तर्यामी॥
#विजयकान्त द्विवेदी
परिचय : विजयकान्त द्विवेदी की जन्मतिथि ३१ मई १९५५ और जन्मस्थली बापू की कर्मभूमि चम्पारण (बिहार) है। मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार के विजयकान्त जी की प्रारंभिक शिक्षा रामनगर(पश्चिम चम्पारण) में हुई है। तत्पश्चात स्नातक (बीए)बिहार विश्वविद्यालय से और हिन्दी साहित्य में एमए राजस्थान विवि से सेवा के दौरान ही किया। भारतीय वायुसेना से (एसएनसीओ) सेवानिवृत्ति के बाद नई मुम्बई में आपका स्थाई निवास है। किशोरावस्था से ही कविता रचना में अभिरुचि रही है। चम्पारण में तथा महाविद्यालयीन पत्रिका सहित अन्य पत्रिका में तब से ही रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। काव्य संग्रह ‘नए-पुराने राग’ दिल्ली से १९८४ में प्रकाशित हुआ है। राष्ट्रीयता और भारतीय संस्कृति के प्रति विशेष लगाव और संप्रति से स्वतंत्र लेखन है।
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