समझ नहीं पाया…

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कभी गमो के साये में जिये
तो कभी खुशी के महौल में।
जिंदगी को जीने के कई
नये नये तरीके मिले।
बदलते मौसम के साथ
हम भी जीने लगे।
और इरादे भी समानुसार
हम भी बदलने लगे।।

भले ही ये सब करने से
हम खुश न हो।
परन्तु दुसरो की खातिर
ये सब करके अब जी रहे है।
और अपने जीवन को
घुट घुट कर जी रहे है।
ये कमबख्त मौत भी तो
अब जल्दी आती नहीं है।।

इरादे कुछ और रखते थे
हम इस जमाने में।
समझ नहीं पाया
लोगो के मसूबो को।
तभी तो खुदगर्ज बन बैठा
स्वंय की ही नजरो में।
लगाये किससे हम गुहार
अपनी पापो को धोने की।।

जय जिनेंद्र देव
संजय जैन (मुंबई)

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