निर्मलकुमार पाटोदी…..
वैश्विक नगरी को हिन्दी अखरी….आज के बिजनेस स्टैंडर्ड में विश्लेषणात्मक रिपोर्ट पढ़कर विचार आया कि,हिन्दी-कन्नड़ को लेकर जो दु:खद भाषाई विवाद उभरा है,उसका नेतृत्व करने वालों की भाषाई समझ भटकी हुई थी। पूरी रिपोर्ट का विश्लेषण भी ठीक दिशा में नहीं है। रिपोर्ट के साथ चित्र में जो साइन बोर्ड दिख रहे हैं। उनमें हिन्दी का एक भी नहीं है। लगभग सभी में या तो कन्नड़-अंग्रेज़ी है या सिर्फ अंग्रेज़ी में है। विचारणीय मुद्दा यह है कि,हिन्दी से हमारी अपनी प्रिय भाषा कन्नड़ का न कभी विरोध रहा है और न होगा। दोनों भाषाएं भारत राष्ट्र की वसुंधरा से उत्पन्न हुई हैं। परस्पर मेलजोल से दोनों सदियों से विकसित हुई है। लिपि भले ही भिन्न-भिन्न हैं,कि सांस्कृतिक दृष्टि से दोनों भाषाएं एक ही धरती की संतान हैं। हिन्दू धर्म के राम-कृष्ण,शंकर जी हों या जैन धर्म के तीर्थंकर हों,सभी कर्नाटक सहित पूरे देश में समान रूप से पूज्यनीय है। गोम्मटेश्वर बाहुबली के महा महोत्सव में पूरे देश के अनुयायी हासन में हज़ार साल से आते रहें हैं। अगली इसी फरवरी में पूरे देश से हज़ारों श्रद्धालु आएंगे। हज़ारों वर्ष पहले प्राचीन कन्नड़ में रचित जैन साहित्य जो ताड़ पत्र पर अंकित था,वह क्या विदेशी भाषा या धर्म का हिस्सा था।
समझने की बात इतनी-सी है कि,हमारी भाषाओं को अपनाने और उनका सम्मान करने से हमारी निकटता,अपनापन बढ़ता ही है। हिन्दी तो पूरे देश को जोड़ने की भूमिका सदियों से निभा रही है। यह भूमिका पहले सँस्कृत ने निभाई थी।यह गले उतरने की बात है कि,कन्नड़ भाषा का का हिन्दी के कारण या तमिल-तेलुगु के कारण नुकसान हो रहा है। कन्नड़ और हिन्दी के बीच दूरी पैदा करने वालों की सोच का आधार ही भटका हुआ है। उनकी विदेशी ग़ुलाम मानसिकता की भाषा अंग्रेज़ी से कन्नड़,हिन्दी सहित देश की सभी भाषाओं को जो अपरिमित क्षति हुई है और हो रही है, इस तथ्य पर उनका ध्यान क्यों नहीं जाता। अंग्रेज़ी भाषा के कारण हमारी नई पीढ़ी के बालक हमारी धरती की जड़ों से कट चुके हैं। उनका खान-पान,रहन-सहन,पहनावा,बोलचाल,सोच-विचार सभी कुछ अपना नहीं रहा हैं। वे हमारे प्राचीन ज्ञान-विज्ञान से कट चुके हैं। हमारे धर्म और धर्म के साहित्य से दूर हो चुके हैं। हमारे इतिहास से अनजान हैं। उनका जीवन सिर्फ भौतिक चकाचौंध में रमा हुआ है जबकि, हमारे भारत की संस्कृति का आधार धर्म पर आधारित रहा है। धर्म और संस्कृति के बिना जीवन अशांत और दु:खी रहता है। हमारा धर्म,भाषा और संस्कृति न केवल शांति से असली सुखमय जीवन जीना सिखाते हैं,अपितु शांति से मरना भी सिखाते हैं।
(साभार-वैश्विक हिन्दी सम्मेलन,मुंबई)