
अपनी भाषाओं की उपेक्षा का दूसरा दुष्परिणाम यह है कि,हम अपनी भाषाओं के माध्यम से अनुसंधान नहीं करते। भारतीय भाषाओं में ज्ञान-विज्ञान का खजाना उपलब्ध है,लेकिन हम लोग उसकी तरफ से बेखबर हैं। हम प्लेटो,सात्र्र और चोम्सकी के बारे में तो खूब जानते हैं लेकिन हमें पाणिनी,चरक,कौटिल्य,भर्तृहरि और लीलावती के बारे में कुछ पता नहीं। हमारे ज्ञानार्जन के तरीके अभी तक वही हैं,जो गुलामी के दिनों में थे। इस गुलामी को १९६५-६६ में सबसे पहले मैंने चुनौती दी थी। ५०-५२ साल पहले मैंने दिल्ली के ‘इंडियन स्कूल आॅफ इंटरनेशनल स्टडीज़’ में मांग की थी कि,मुझे अपने पीएच-डी. का शोधग्रंथ हिन्दी (मेरी मातृभाषा) में लिखने दिया जाए। अंग्रेजी तो मैं जानता ही था, मैंने फारसी,रुसी और जर्मन भी सीखी। प्रथम श्रेणी के छात्र होने के बावजूद मुझे स्कूल से निकाल दिया गया। संसद में दर्जनों बार हंगामा हुआ। यह राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन गया। आखिरकार स्कूल के संविधान में संशोधन हुआ,मेरी विजय हुई। भारतीय भाषाओं के माध्यम से उच्च शोध के दरवाजे खुले। इन दरवाजों को खुले ५० साल हो गए,लेकिन इनमें से दर्जनभर पीएच-डी. भी नहीं निकले। क्यों ?क्योंकि,अंग्रेजी की गुलामी सर्वत्र छाई हुई है। जब तक हमारे देश की सरकारी भर्तियों,पढ़ाई के माध्यम, सरकारी काम-काज और अदालतों से अंग्रेजी की अनिवार्यता और वर्चस्व नहीं हटेगा,भारतीय भाषाएं लंगड़ाती रहेंगी और हिन्दुस्तान दोयम दर्जे का देश बना रहेगा।
#डॉ. वेदप्रताप वैदिक