भारत की भाषाई गुलामी

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vaidikji
स्वतंत्र भारत में भारतीय भाषाओं की कितनी दुर्दशा है ? इस दुर्दशा को देखते हुए कौन कह सकता है कि भारत वास्तव में स्वतंत्र है ? ‘पीपल्स लिंग्विस्टिक सर्वे आॅफ इंडिया’ नामक संस्था ने कई शोधकर्ताओं को लगाकर भारत की भाषाओं की दशा का सूक्ष्म अध्ययन करवाया है। इसके ११ खंड प्रकाशित हुए हैं। इस अवसर पर वक्ताओं ने दो महत्वपूर्ण बातें कहीं। एक तो यह कि, पिछले ५० वर्षों में भारत की २५० भाषाएं लुप्त हो गई हैं,क्योंकि इन भाषाओं को बोलनेवाले आदिवासी बच्चों को सिर्फ देश की २२ सरकारी भाषाओं में ही पढ़ाया जाता है। उनकी भाषाएं सिर्फ घरों में ही बोली जाती हैं। ज्यों ही लोग अपने घरों से दूर होते हैं या बुजुर्गों का साया उन पर से उठ जाता है तो ये भाषाएं,जिन्हें हम बोलियां कहते हैं,उनका नामो-निशान तक मिट जाता है। इनके मिटने से उस संस्कृति के भी मिटने का डर पैदा हो जाता है, जिसने इस भाषा को बनाया है। इस समय देश में ऐसी ७८० भाषाएं बची हुई हैं। इनकी रक्षा जरुरी है। 
 

अपनी भाषाओं की उपेक्षा का दूसरा दुष्परिणाम यह है कि,हम अपनी भाषाओं के माध्यम से अनुसंधान नहीं करते। भारतीय भाषाओं में ज्ञान-विज्ञान का खजाना उपलब्ध है,लेकिन हम लोग उसकी तरफ से बेखबर हैं। हम प्लेटो,सात्र्र और चोम्सकी के बारे में तो खूब जानते हैं लेकिन हमें पाणिनी,चरक,कौटिल्य,भर्तृहरि और लीलावती के बारे में कुछ पता नहीं। हमारे ज्ञानार्जन के तरीके अभी तक वही हैं,जो गुलामी के दिनों में थे। इस गुलामी को १९६५-६६ में सबसे पहले मैंने चुनौती दी थी। ५०-५२ साल पहले मैंने दिल्ली के ‘इंडियन स्कूल आॅफ इंटरनेशनल स्टडीज़’ में मांग की थी कि,मुझे अपने पीएच-डी. का शोधग्रंथ हिन्दी (मेरी मातृभाषा) में लिखने दिया जाए। अंग्रेजी तो मैं जानता ही था, मैंने फारसी,रुसी और जर्मन भी सीखी। प्रथम श्रेणी के छात्र होने के बावजूद मुझे स्कूल से निकाल दिया गया। संसद में दर्जनों बार हंगामा हुआ। यह राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन गया। आखिरकार स्कूल के संविधान में संशोधन हुआ,मेरी विजय हुई। भारतीय भाषाओं के माध्यम से उच्च शोध के दरवाजे खुले। इन दरवाजों को खुले ५० साल हो गए,लेकिन इनमें से दर्जनभर पीएच-डी. भी नहीं निकले। क्यों ?क्योंकि,अंग्रेजी की गुलामी सर्वत्र छाई हुई है। जब तक हमारे देश की सरकारी भर्तियों,पढ़ाई के माध्यम, सरकारी काम-काज और अदालतों से अंग्रेजी की अनिवार्यता और वर्चस्व नहीं हटेगा,भारतीय भाषाएं लंगड़ाती रहेंगी और हिन्दुस्तान दोयम दर्जे का देश बना रहेगा।

                                                                     #डॉ. वेदप्रताप वैदिक

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।