हमारा  हिस्सा

0 0
Read Time22 Minute, 42 Second
rambhawan
रामपुर का रामू घर के सामने खड़ा होकर उनका बड़े ही बेसब्री से इन्तजार कर रहा था। उनकी सेवाभगत करने के लिए कभी वह घर में जाता था कि, उनके खाने-पीने, रहने और बैठने की व्यवस्था देखने के लिए तो कभी बाहर आकर उनकी बाट जोहता।
तभी रामू के पिता मनोहरलाल उसे कुछ दूरी पर दिखाई पड़े। रामू खुशी से झूम उठा। वो क्या है कि ,आज उसके छोटे भाई श्यामू को देखने  यानि शादी के लिए  वरदेखुवा उसके घर आने वाले थे।
रामू  की बहुरिया रीमा भी घर आँगन को सजाने-धजाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थी,क्योंकि उसके लक्ष्मण जैसे देवर की पत्नी यानि देवरानी उसे जो मिलने वाली थी,और उसके साथ घर में हाथ बंटाने वाली आने वाली थी।
  रीमा अपने देवर श्यामू को साबुन से नहलाने के बाद उसके बालों मे शैम्पू लगाकर उसे खूब अच्छी तरह से नहला धुला रही थी। मानो अपने मन की मैल छुड़ा  रही हो,क्योंकि बहुत दिन के बाद श्यामू को देखने फिर कोई वरदेखुवा जो आ रहा था। वह चाहती थी कि,श्यामू इतना सुन्दर दिखे कि,देखने वाले  देखते ही रह जाएँ और उसे इस बार जरूर पसंद कर लें।
रामू की नजर अचानक पिताजी  के पीछे पड़ी तो,उसने  देखा कि उनके पीछे-पीछे दो सज्जन और आ रहे हैं। रामू के मन में मानों लड्डू फूट पड़ा। दरअसल रामू के पिताजी उन्हें लाने के लिए गए हुए थे।
   रामू दौड़ पडा। सबके पाँव छूकर उसने उन दोनों सज्जनों को नमस्कार किया। फिर घर के अन्दर ले जाकर तख्ते पर साफ  बिछाए हुए चादर पर बैठा दिया। सबको मीठा पानी देकर सबका हाल-चाल पूछ ही रहा था कि, श्यामू भी दूल्हे की तरह सज-धजकर आया और सबके पाँव छूकर बगल में बड़ी शालीनता के साथ खड़ा हो गया।
दोनों सज्जनों में एक शायद,जो कन्या के पिताजी ही थे श्यामू से पूछ बैठे कि-  ‘तोहार का नाम हव बाबू ?’
‘श्यामू’-श्यामू बड़ी शालीनता से बोला।
‘बड़ा अच्छा नाम बा बाबू ‘-लड़की के पिताजी ने कहा।
‘केतना पढ़ले-वढ़ले  बाटा बाबू तुँ’?
-कन्या के पिताजी के साथ आए दूसरे मेहमान ने पूछा।
‘कक्षा दस बस’-श्यामू ने कहा।
‘ठीक बा बाबू अब तुँ जा मे घर में जा सकेला’-कन्या के पिताजी ने कहा।
दोनों मेहमानों की सेवा-सुश्रुषा रामू ने इस प्रकार की कि,जैसे उसकी पर्ण कुटिया में मानों भगवान राम खुद पधारें हों। रामू ने बड़ा होने के कारण घर की सारी जिम्मेदारी को सम्भाल लिया था। उसके पिताजी अब वृद्धावस्था लाँघ चुके थे,थोड़ा ऊँचा सुनते थे,सो उनकी हालत गुजराती लाला-सी थी।
कन्या के पिताजी ने विदाई के समय जाते-जाते कहा कि-‘लड़िका हमके बहुत  पसन्न बा’।
श्यामू की शादी बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हुई। श्यामू जब अपनी नई नवेली दुल्हन को लेकर गृह प्रवेश कर रहा था,तभी श्यामू की भाभी ने दोनों को टोकते हुए कहा कि-‘पहिले हमें आरतिया त उतार लेवे द,तब घर में हलिहा’।
आरती उतारने के बाद उन दोनों को धीरे-धीरे घर में ले गई,जैसे कोई नई गाड़ी को घर में सम्भालकर ले जाता है।
समय के साथ खुशी-खुशी के दिन व्यतीत होने लगे। रामू और उसकी पत्नी रीमा अब खेत-खलिहान ही देखते थे,क्योंकि अब खाना-दाना बनाने का झंझट खत्म हो गया था।
रामू के पिताजी खा-पीकर मवेशियों को जंगल में चराने चले जाते थे। शादी का लड्डू कुछ ही दिन मीठा लगता है,उसके बाद उसमें तीखापन आना शुरू हो जाता है,ठीक उसी प्रकार श्यामू अकेले घर में रहते अब ऊँफने लगा था,सो उसने भी गाँव के नजदीक शहर में कपड़े की एक दुकान पर साढ़े तीन हजार रुपए प्रतिमाह पर काम करना शुरू कर दिया।
श्यामू जब शाम को घर आता तो उसकी पत्नी सीमा उससे बोल पड़ती कि-‘ आज हमरे लिए रऊवाँ का किनके लाईल हईं ?
‘अरे,तोहरे लिए त हमार जान हाजिर बा’ -श्यामू ने अपनी पत्नी को खुश करने के लिए लहजे में बड़े प्रेम से कहा।
‘देखींन हमार पायल बहुत पुरान हो गईल बा,ओके नया बनवा दी न?’ सीमा ने ये बात श्यामू को दुलारते हुई कही।
‘अच्छा बाबा! कवनो बात क चिन्ता  जनि करीं,हम अबकिर जब वेतन पाईब त तोहरे खातिर तोहफा में नया पायल जरूर ला देब समझलु,अब चला खाना लगावा ना ?’
दिनों-दिन सीमा की माँग इसी तरह बढ़ती गई,और धीरे-धीरे श्यामू उसके वश में होता चला गया। बात-बात पर अब वह श्यामू को झटकारने भी लगी थी। श्यामू से झगड़ा करना तो अब उसकी आदत में शुमार हो गया था। श्यामू से थोड़ा ज्यादा पढ़ने का नशा भी जो था।
कुछ दिन व्यतीत होने के बाद सीमा का हालचाल लेने के लिए सीमा के पिताजी उसके घर पहुँचे तो, घर पर कोई नहीं था सिवाय सीमा के..इसलिए उन्हें पानी-दाना देने वाला भी घर में कोई नहीं था।
पिताजी को मीठा पानी देने के लिए सीमा के घर में भूजा हुआ भाँग भी नहीं था।
कहते हैं कि,गरीबी बड़ी ही खराब चीज होती है। कोई किसी की गरीबी को दिल से समझता है तो,कोई किसी की गरीबी का गलत फायदा उठाने में अपने को शेर समझता है। इसी का फायदा उठाकर सीमा ने अपने पिताजी से कहा कि-‘रऊवाँ क भैया अऊर भाभी जी पता नाहीं खेतवा में का करलँ- धरलँ कि,घर में आपके मीठा अऊर पानी देवेके खरपतवार तक भी ना बा,बाबू जी।
हमें बड़ा शरम आगत बा! हमरे समझ में कुछ भी ना आवत बा कि,अब हम का करीं?’
‘हमरे समझ में सब आवत बा बेटी।’ पिता ने सीमा को उकसाते हुए कहा।
‘तोहरे का समझ में आवत बा बाबू जी,तनि हमहूँ के बतावा ना? हमहूँ जानी?’-सीमा अपने पिताजी से कौतुहलवश पूछ पड़ी।
‘इह कि ऊ दोनों परानी फसल क सारा पैसा बैंकवा में जमा करत होई हैं सन। त कहाँ से घरे दिहैं सन। अब समझलु बेटी।’ -पिताजी ने सीमा को ऊकसाते हुए  कहा।
‘हाँ बाबू जी,अब हम सब कुछ समझ गईनी’ -सीमा ने बड़े आत्मविश्वास के साथ पिताजी से यह बात कही।
‘समझले से अब काम ना चली। कबो श्यामू -रामू  से फसल क हिसाब किताब माँगलें कि नाहीं?’- पिताजी ने सीमा के मन में आग लगाते हुए कहा।
‘कबो नाहीं बाबू जी।रऊवाँ क भैया  इन पर पता नाहीं कवन जादू टोना कई दिहलै बा न कि,ओनके सामने ई हरदम सिर झुका के चललँ।’-सीमा ने कहा।
‘तब त बहुत गड़बड़ बा बेटी! श्यामा के भलमनसाहत क फायदा ऊ दुनो खूब उठावत बाणे’-सीमा रूपी आग में फिर खरपतवार डालते हुए पिता ने सीमा से कहा।
‘ठीक बात बाबू जी,अब लगत बा हमही के कुछ करे के पड़ी।’- सीमा ने अपने पिताजी से बड़े आत्मविश्वास से कहा।
‘अच्छा बेटी,अब हमें अपने घरे जायेदा। तोहरे घरे क लोग आ जई हैं त सबकुछ गड़बड़ा जाई। हमें इहां अईले क केहु के भनक न लगे पावे।’-यह  कहकर  सीमा के पिताजी अपने घर चले गए।
शाम को जब श्यामू घर आया तो,मानो सीमा कलियुग की कैकेयी बन चुकी थी, उसके मन में उसके पिताजी मंथरा का मंत्र जो भर गए थे।
उसके शरीर के सभी वस्त्र अस्त-व्यस्त थे। बाल बिखरे हुए थे। जैसे मैदानी नदियाँ घाटी में गिरते वक्त शेर के पंजों की भाँति शिकार करने को व्याकुल  हो उठती हैं। श्यामू कुछ समझा नहीं। वह सीमा के सिर पर स्नेह-हाथ फेरते हुए बोला-‘तबियत-वबियत नाहीं ठीक बा का तोहार?’
‘तोहरे घर में भूजल भाँग भी नाहीं बा कि,जेके खा के हम मरी पाईं? तोहार भैया ‘राम’ अऊर भाभी ‘सीता’ सब राजपाट त अकेले ही ले लिहलैं बाणन, हम सब एक-एक दाना क मोहताज हो गईल बाटीं ?’ सीमा ने फफक-फफककर रोते हुए कहा। उसकी आँखों से घड़ियाली आँसू की धारा बह रही थी, जैसे बरसात के समय झोपड़ी से पानी की बूँदें टपकती हैं।
‘त तुम्हीं बतावा न हम का करीं ? हमरे समझ में कुछ नाहीं आवत बा,कि हम अब का करीं और धरीं ?’-श्यामू  पागलों की भाँति ये बोल गया।
‘त  सुना ? आज अऊर अबहीं अपने भोले-भाले भैया से फसल क हिसाब-किताब माँगा। अगर ऊ तनिको आनाकानी करें त आपन खेत की हिस्सा लेकर ही रहिहा। हाँ,नाहीं त हम आज से न कुछ खाईब अऊर न ही कुछ पीयब?’
कैकेयी अपना फैसला सुना चुकी थी।
त्रिया का चरित्र जब राजा दशरथ नहीं समझ पाए तो,फिर श्यामू किस खेत की मूली था? होनी तो होकर ही रहती है।उसमें कहाँ-किसी का वश चलता है?
शाम के समय जब रामू अपने एक काँधे पर हल और दूसरे काँधे पर कुदाल तथा जोठा में दो बैलों को लेकर घर की ओर चला तो मन में सोचने लगा कि,श्यामू दौड़ते हुए हमारे पास आएगा और हल अपने काँधे पर लेकर मेरे काँधे का भार हल्का कर देगा…।
मगर आज क्यों नहीं आ रहा है,लगता है अभी उसकी दुकान बढ़ी नहीं है?
मगर आज श्यामू भस्मासुर बन चुका था, उसकी आँखों में बड़े भाई के लिए आँसू नहीं,अंगार भरी थी।
आज वह सब कुछ भस्म करने की भीष्म प्रतिज्ञा कर घर की चौखट पर बैठा था।
रामू घर पर पहुंचा तो,देखा कि श्यामू का चेहरा लाल गुब्बारे  की भांति फूला हुआ है। उसने श्यामू से पूछा-‘श्यामू आज तोहार तबियत ठीक ना बा का?’
‘तबियत त ठीक बा,बाकी कुछ भी ठीक ना बा!’-श्यामू पूरे रौब में बोल रहा था।
‘हम कुछ समझलि ना,तु आज का कहत बाणा?’-रामू बोला।
‘आजु सब समझ जाबा भैया? पहिले फसल क पूरा हिसाब-किताब द,तब बाकी भी बता देब।’
‘फसल क कईसन हिसाब-किताब?अरे! तोहे पललि-पोसलीं,पढ़वलीं-लिखवलीं; तोहार बियाह-शादी कईलीं,पूरे परिवार के खियऊलीं-जियऊलीं,कपड़ा-लत्ता देहलीं,नात-बात देखलीं,केतना बताईं हम तोहसें,तु खुद देखत रहला?अब हमसे काहे पूछत बाणा भाई?’-रामू ने रोते हुए कहा।
‘देखा भैया! हमसे ज्यादा नौटंकी जनि करा,कित त तुँ हमें पूरा-पूरा फसल क हिसाब देद,नाहीं त खेत-खलिहान-घर दुआर सबमें हमार पूरा हिस्सा!’-श्यामू ने गरजते हुए कहा।
‘ठीक बा बाबू! तोहरे खुशी में ही हमार खुशी छिपल बा। जवन तुँ कहबा,आज ऊह होई। बोला तोहें का-का चाहीं?’-
रामू भी आज भाई के लिए सब कुछ लुटाने को तैयार था।
‘खेत-खलिहान घर-दुआर में हमें आधा-आधा, बाकी 5 मवेशी,घर में रखल पचीस हजार रुपया तथा शहर के किनारे बारह ढिस्मिल जमीन पिताजी के दे द।जे ओनकअ सेवा-सत्कार करी तेके ऊ आपन दे दी हैं।’
श्यामू ने चालाकी के साथ सब कुछ बँटवारा कर दिया था, कि अन्ततः पिताजी हमारे घर में ही रहेंगे और बाद में सब हमारा हो ही जाएगा।
अब बारी पिताजी की थी कि,वह किसके साथ रहेगें? जब मनोहरलाल से पूछा गया तो उन्होंने कहा-‘देखा बाबू! दोनों जनि अपन होखा। हमरे लिए सभै बराबर बा। रामू त खेत-खलिहान परिवार सब सम्भाल लिहैं,बकिर श्यामू अबहीन बहुत छोट बाटन,अबहीन ओकरे बुद्धि नाही बा। ओकर मेहरारू घर से भी बाहर न निकसेलें,फिर ओकर खेत-खलिहान घर-दुआर के देखी?
हम श्यामू में रहब त जरूर कुछ दिन सम्भाल देब,फिर हमरे जिनगी क कवन ठिकाना बा? सब  तोहन पचन क त होई न?’
पिताजी अपना फैसला सुना चुके थे।
रामू और उसकी पत्नी सीमा को तनिक भी दुख नहीं था,क्योंकि उनकी समझ में श्यामू अभी भोहर ही था।
सीमा और श्याम दोनों आज बहुत खुश थे कि,पिताजी हमारे साथ आ गए
हैं तो हमें सबसे ज्यादा धन-धरम मिल गया है।
सीमा और श्यामू पिताजी की तब तक खूब सेवा-सत्कार खातिरदारी करते रहे, जब तक उनके पास पैसा था। सीमा और श्यामू दोनों धूर्त के साथ-साथ बहुत ही स्वार्थी थे। काम-धाम तो कुछ खास करते नहीं थे। जब पिताजी का पैसा खत्म हो गया तो वे एक-एक मवेशी बेचते गए और पिताजी की सेवा-सत्कार और खातिरदारी भी त्यों -त्यों कम करते गए।
जब सभी मवेशी खत्म  हो गए तो उस दिन से पिताजी का  हुक्का पानी भी बंद कर  दिया गया ।
पिता मनोहरलाल को पहले बैठे-बैठे खाना-पानी के साथ दूध व फल भी मिलता था। अब अगर पानी माँग लेते तो सीमा तुंरत कह देती थी-‘कहाँ तोहार नानी गाड़ी के धईले बाटीन कि,हम तोहें पानी लाके दे देईं ?’
मनोहर लाल भी बड़े जिद्दी स्वभाव के इंसान थे,वह भले ही बूढ़े हो गए थे, हड्डियों में मांस झूल रहा था,मगर गुस्सा उनका आज भी कम नहीं था। वह डंडा  उठाए, रेंगते-रेंगते रामू के घर पहुँच गए।
सारा वाकया  रामू से कह सुनाया कि-‘बाबू,अब हम बिना खाए ही मर जाईब बकिर श्यामू के घर वापस ना जाईब।’
रामू ने कहा-‘आखिर कवन बात हो गईल बाबू जी? तोहँके के का कहलीस है,हमें भी बतावा ना बाबू जी?’
‘बेटा रामू,हम ऊ बात अब केहु से ना बताईब..ऊ बात अब हमरे छाती में धईल रही,हमरे चिता के ही साथ जाई।’
‘ठीक बा पिताजी हम  तोहार सेवा-सत्कार खूब करब,केकर भाग जे माई- दादा  क सेवा  करे के पावे? हमार चार धाम अब तुँही बाडा बाबू जी। अब हमके छोड़ी के जनि कहीं जईहा। वादा करा न बाबू जी ?’ -रामू  के मुख से शब्द नहीं निकल रहे थे..मानो वह भगवान का साक्षात्कार कर रहा हो।
रामू और उसकी पत्नी  दिनभर खेत- खलिहान में ही रहते थे। उसने अपने बेटे  धीरज को पिताजी की सेवा में ड्यूटी  पर लगा दिया कि,तुम पिताजी को  नहवाओगे-धोवाओगे। खाना घर से ले जाकर अपने हाथ से खिलाओगे, पिताजी के पास ही रहोगे और सोवोगे।
मैं तुम्हें पिताजी को समर्पित  करता हूँ।
जैसा बाप  वैसा बेटा,तो धीरज भी अपने दादाजी की खूब सेवा करता था। उसने पिताजी की आज्ञा को शिरोधार्य  कर पढ़ाई भी छोड़ दी।
मनोहर लाल को लगा कि,अब वह ज्यादा दिन के मेहमान नहीं हैं तो,उन्होंने रामू को बुलाकर कहा- ‘बेटा रामू! हमार एक इच्छा और बा! बोला,पूरा करबा ना?
हमें आपन तीन बचा द,तब हम कहीं?’
‘हाँ-हाँ,हाँ,हम तोहार अंतिम इच्छा भी पूरा  करब बाबू जी।हम तोहार कसम खा के कहत बाडी। अब त बतावा बाबू जी?’ रामू ने अपने पिताजी के सिर पर हाथ रखकर कहा।
‘शहरिया में हमरे नाम से जवन बारह  ढिस्मिल जमीनिया बा हम धीरज बेटवा  के नाम से वसीयत रजिस्ट्री कईल  चाहत बाटी,मरले  से पहिले।’-यह बात मनोहरलाल ने काँपते  हुए कही।
‘पिताजी ओहमें  छः ढिस्मिल  जमीन  श्यामू क ह,हम इ पाप ना कर सकिलाँ।’
‘बेटा,अहमन कवनों पाप नईखे,श्यामू  खुद कहले रहले  कि-‘जे बाबू जी क  सेवा-सत्कार  करी,ऊ जमीन ओही क  हो जाई। फिर हम  न  तोहे  देत बाँडी और न श्यामू  के। हम धीरज के देत  बाँडी,जे हमार  सेवा बुढऊती में करत बाडनसन।’- मनोहरलाल ने कहा।
रामू यह बात अपने छोटे भाई श्यामू  से कह आया कि,पिताजी बहुत गलत करने जा रहे हैं,जो हमारे लिए किसी पाप से कम नही है। श्यामू  ने जब यह बात सुनी तो मानो उसके पाँव की जमीन ही खिसक गई..।
श्यामू ने तुरंत  गाँव में पंचायत बैठाकर सारी बात पंच परमेश्वरों से रोते-रोते कह दी। दोनों पक्षों की बात ध्यानपूर्वक सुनने के बाद पंच परमेश्वरों ने मनोहरलाल की बातों का समर्थन करते हुए कहा कि-‘देखा श्यामू, तुँ अपने पिताजी के पास रखल पचीस हजार रुपया और पाँचों मवेशी अकेले डकार गईल बाटा और फिर पिताजी क सेवा भी ना कईला? ऐसे ना,तोहार औरत तोहरे बाबू जी के गाली-गलौज कर घर से ताड़ दिहलीन जैसे मनोहर लाल के दिल पर बहुत ठेस लागल बा। अब पंचायत क इ फैसला बा कि,शहर क बारह ढिस्मल जमीन न रामू के नाम से न श्यामू के नाम से,बल्कि रामू के बेटे धीरज के नाम से,जे तोहरे बाबू जी क सेवा पूत नियन कईले बाडेन ओकरे नाम से वसीयतनामा रजिस्ट्री करावे क आदेश सर्वसम्मति से पारित कईल जाता यहाँ पर।’ फिर पंचायत  के सभी सम्मानित सदस्यगण और गाँव  के सभी लोग रजिस्ट्री पर अपना अँगूठा और हस्ताक्षर कर धीरज के हाथ में थमा दिए। पंच परमेश्वर का फैसला सुन दोनों का कलेजा निकल गया था।
रात के घनघोर अँधेरे में श्यामू और सीमा अपना मुँह लटकाए अपने कर्म पर रोते हुए भारी पैरों से घर ऐसे जा रहे थे,मानों उनके हाथों से सबसे कीमती वस्तु छिन गई हो।
किसी ने ठीक ही कहा है-
‘जैसी करनी वैसी भरनी।
पछताए  न पाए  धरनी॥’
                                                                                  #रामभवन प्रसाद चौरसिया 
परिचय : रामभवन प्रसाद चौरसिया का जन्म १९७७ का और जन्म स्थान ग्राम बरगदवा हरैया(जनपद-गोरखपुर) है। कार्यक्षेत्र सरकारी विद्यालय में सहायक अध्यापक का है। आप उत्तरप्रदेश राज्य के क्षेत्र निचलौल (जनपद महराजगंज) में रहते हैं। बीए,बीटीसी और सी.टेट.की शिक्षा ली है। विभिन्न समाचार पत्रों में कविता व पत्र लेखन करते रहे हैं तो वर्तमान में विभिन्न कवि समूहों तथा सोशल मीडिया में कविता-कहानी लिखना जारी है। अगर विधा समझें तो आप समसामयिक घटनाओं ,राष्ट्रवादी व धार्मिक विचारों पर ओजपूर्ण कविता तथा कहानी लेखन में सक्रिय हैं। समाज की स्थानीय पत्रिका में कई कविताएँ प्रकाशित हुई है। आपकी रचनाओं को गुणी-विद्वान कवियों-लेखकों द्वारा सराहा जाना ही अपने लिए  बड़ा सम्मान मानते हैं।

matruadmin

Average Rating

5 Star
0%
4 Star
0%
3 Star
0%
2 Star
0%
1 Star
0%

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Next Post

हारकर बैठा हुआ आदमी

Fri Jul 28 , 2017
हर आदमी के अन्दर कम-से-कम एक आदमी और रहता है, यानि एक आदमी कम-से-कम दो आदमी के बराबर होता है, कई बार तो हजारों आदमियों के बराबर। एक आदमी के सामने, एक समय में कम-से-कम दो दुनिया होती है, कभी-कभी तो इतनी सारी दुनिया कि, उसे होश ही नहीं रहता […]

संस्थापक एवं सम्पादक

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।