तमिल ख़ुद सीखेंगे हिन्दी

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हिन्दी लेख माला के अंतर्गत डॉ. वेदप्रताप वैदिक

हिन्दी को लेकर तमिलनाडू में फिर बवाल मच सकता है। केरल तथा कुछ अन्य प्रांतों में उनके राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों में पहले से भिड़ंत हो रही है। उस भिड़ंत का मुद्दा है— विश्वविद्यालयों के उप-कुलपतियों की नियुक्ति लेकिन तमिलनाडू में मुद्दा यह बन गया है कि उसकी पाठशालाओं में केंद्र का त्रिभाषा-सूत्र लागू किया जाए या नहीं? राज्यपाल आर.एन. रवि ने तमिलनाडू की सभी शिक्षा-संस्थाओं को निर्देश दिया है कि वे अपने विद्यार्थियों को तमिल, हिन्दी और अंग्रेज़ी अनिवार्य रूप से पढ़ाएं। लेकिन तमिलनाडू की द्रविड़ मुनेत्र कड़गम सरकार का कहना है कि वह बच्चों की पढ़ाई में हिन्दी को अनिवार्य नहीं करेगी। हिन्दी का विकल्प खुला रहेगा। जो बच्चा पढ़ना चाहेगा, वह पढ़ेगा। किसी भाषा को किसी भी राज्य पर थोपना ग़लत है। द्रमुक के स्वर में स्वर मिलाते हुए तमिलनाडू की भाजपा ने भी हिन्दी की अनिवार्य पढ़ाई का विरोध किया है। गत वर्ष जब एम.के. स्तालिन मुख्यमंत्री बने, तभी उन्होंने कह दिया था कि वे नई शिक्षा नीति के त्रिभाषा-सूत्र को लागू नहीं करेंगे। हमें सोचना चाहिए कि अकेले तमिलनाडू के नेता इस तरह की घोषणाएं क्यों कर रहे हैं? इसका एक मात्र कारण है, उस प्रांत की हिन्दी-विरोधी राजनीति! हिन्दी-विरोध के दम पर ही तमिलनाडू की राजनीति चलती रही है। अन्नादुरई, करुणानिधि, जयललिता और स्तालीन आदि हिन्दी-विरोध के दम पर ही वहां मुख्यमंत्री बने हैं। 1965-66 में जब मेरे अंतरराष्ट्रीय राजनीति के शोधग्रंथ को हिन्दी में लिखने की बात उठी थी तो अन्नादुरई, के मनोहरन और अंबझगान- जैसे सांसदों ने संसद को ठप्प कर दिया था और तमिलनाडू के हिन्दी-विरोधी आंदोलन में स्वतंत्र राष्ट्र की मांग भी उठा दी गई थी। अब तमिलनाडू में पहले जैसा हिन्दी विरोध नहीं है लेकिन उसमें किसी भी पार्टी की हिम्मत नहीं है कि वह हिन्दी के पक्ष में अपना मुंह खोल सके। हिन्दी की उपयोगिता अब इतनी बढ़ गई है कि उसे तमिल बच्चे अपने आप सीखेंगे। उसे आपको उन पर थोपने की ज़रूरत नहीं है। वे ख़ुद उसे ख़ुद पर थोपना चाहेंगे। बस ज़रूरत यह है कि देश की सभी भर्ती परीक्षाओं में आप अंग्रेज़ी की थुपाई बंद कर दें। अंग्रेज़ी तथा अन्य विदेशी भाषाओं की एच्छिक पढ़ाई ज़रूर हो लेकिन भारतीय भाषाओं के ज़रिए देश के उच्चतम पदों तक पहुंचने की पूर्ण सुविधा होनी चाहिए। हिन्दी अपने आप आ जाएगी। जो हिन्दी नहीं सीखेंगे, वे अपने प्रांत के बाहर जाकर क्या लोगों की बगलें झांकेगें? वे अपना नुकसान ख़ुद क्यों करेंगे? क्या स्वतंत्र भारत में कोई ऐसी सरकार भी कभी आएगी, जो सचमुच राष्ट्रवादी होगी और जो राष्ट्रभाषा के ज़रिए सारे राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने का बीड़ा उठाएगी?

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

वरिष्ठ पत्रकार एवं हिन्दीयोद्धा
संरक्षक, मातृभाषा उन्नयन संस्थान
31 दिसंबर 2021

कौन हैं डॉ. वेदप्रताप वैदिक


पत्रकारिता, राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति, हिन्दी के लिए अपूर्व संघर्ष, विश्व यायावरी, अनेक क्षेत्रों में एक साथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले अद्वितीय व्यक्तित्व के धनी मातृभाषा उन्नयन संस्थान के संरक्षक डाॅ. वेदप्रताप वैदिक का जन्म 30 दिसंबर 1944 को पौष की पूर्णिमा पर इंदौर में हुआ। वे सदा मेधावी छात्र रहे। वे भारतीय भाषाओं के साथ रूसी, फ़ारसी, जर्मन और संस्कृत के भी जानकार रहे। उन्होंने अपनी पीएच.डी. के शोधकार्य के दौरान न्यूयॉर्क की कोलंबिया विश्वविद्यालय, मास्को के ‘इंस्तीतूते नरोदोव आजी’, लंदन के ‘स्कूल ऑफ़ ओरिंयटल एंड अफ़्रीकन स्टडीज़’ और अफ़गानिस्तान के काबुल विश्वविद्यालय में अध्ययन और शोध किया। कुशल पत्रकार, हिन्दी के लिए 13 वर्ष की उम्र से सत्याग्रह करने वाले हिन्दी योद्धा, विदेश नीति पर गहरी पकड़ रखने वाले सम्पादक डॉ. वैदिक जी कई पुस्तकों के लेखक रहे। सैंकड़ो सम्मानों से विभूषित डॉ. वैदिक जी 14 मार्च 2023, मंगलवार को गुरुग्राम स्थित आवास से परलोक गमन कर गए।

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