जैसे कर्म के रहे हैं,वैसे ही फल पा रहे हैं

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ये कैसे जमाना आया है,ये दुनिया कहां जा रही है।
जैसे किए हैं कर्म इसने,वैसे ही ये फल पा रही हैं।।

पेड़ काट काट कर दुनिया,प्रकृति का दोहन कर रही है।
आज मुर्दे को जलाने के लिए लकड़ी भी न मिल रही हैं।

ये कैसे संस्कार है दुनिया के अपनी सभ्यता मिटती जा रही है।
जिसके हाथ में राखी बांधी थी,उसी के साथ वह भागी जा रही है।

जिसको माना था महाशक्ति,वहीं नारी गुल खिला रही है।
अपने पति को मारकर,प्रेमी के साथ खिल खिला रही हैं।।

पारदर्शी वस्त्र पहन कर,अपने अंगों का प्रदर्शन कर रही है।
फटी जींस पहन कर,वह दुनिया को क्या दर्शाने जा रही हैं।।

शादी के पवित्र बन्धन में,आज आग लगाती जा रही है।
शादी से पहले ही लड़कियां,खूब रंगरलियां मना रही हैं।।

आज चुनाव रैलियों में काफी भीड़ इकट्ठी होती जा रही हैं।
भीड़ इकट्ठी करके आज,कोरोना को निमंत्रण देने जा रही है।।

जो होते थे कोठे में कारनामे,वे सब कोठियों में हो रहे हैं।
वैशायाओ को लोग यूंही बेकार में ही बदनाम कर रहे हैं।।

बेटा आज कलयुग में मां बाप को रोज आंखे दिखा रहा है।
उनकी प्रॉपर्टी छीनकर उनको ही वृद्धआश्रम दिखा रहा है।।

लिखने को बहुत कुछ है पर रस्तोगी का मन दुःखी हो रहा है।
क्योंकि कागज कलम भी आज मुझे ही बेदखल कर रहा है।।

आर के रस्तोगी
गुरुग्राम

matruadmin

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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