मजबूर

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सुन लो साहब !मेरी भी,
मैं तो एक मजदूर हूँ।
किस्मत का मारा मैं बेचारा,
प्रभु की रहमत से दूर हूँ।

लॉक डाउन हुआ है जब से,
रोजगार कोई मिलता नहीं।
दो वक्त की रोटी का भी ,
जुगाड़ कोई करता नहीं।

हर रोज़ निकलता हूँ घर से,
पर काम कोई मिलता नहीं।
भरे पेट परिवार का जिससे,
ऐसा कोई मोल मिलता नहीं।

आग पेट की होती है क्या,
कोई पूछे हम मजदूरों से।
मजबूरी होती है क्या,
कोई बूझे हम मजदूरों से।

तड़प रहे हैं बीबी बच्चे,
तड़प रही है बूढ़ी माँ।
फ़टे कलेजा देखके हालत,
तन से निकलती मेरी जान।

सरकारें आकर चलीं गईं,
पर बदले ना हम मजदूर।
रोटी कपड़ा मकान को,
तरसे सदा हैं हम मजदूर।

मजदूरों की मजबूरी का,
अब और मज़ाक बनाओ ना।
कर सकते ना मदद हमारी।,
तो हमें देख मुस्काओ ना।

नहीं मांगते धन और दौलत,
बस हम काम ही मांगते हैं।
अपनी मेहनत के दम पर,
हम जीवन जीना जानते हैं।

मुफ्त की रोटी खाने को,
ईमान कभी ना बेचा है।
अपने खून पसीने से ही,
परिवार का उपवन सींचा है।

बाबू जी हमको देना है तो,
कोई काम हमें बस दे दो तुम।
बीबी बच्चों का पेट भरे बस,

दाम इतना सा दे दो तुम।

स्वरचित
सपना (स. अ.)
प्रा.वि.-उजीतीपुर
वि.ख.-भाग्यनगर
जनपद-औरैया

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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