
पीढ़ियों का अंतर तो हर दौर में रहा है, बुज़ुर्ग और युवा पीढ़ी के बीच संवाद की कमी हमेशा ही रही है, फिर आज के वृद्ध ख़ुद को अधिक उपेक्षित क्यों महसूस करते हैं?
कारण है, उनका भावी पीढ़ी से संवाद भी कम या लगभग ख़त्म हो गया है। महज़ तीन-चार दशक पहले तक बच्चों और बुज़ुर्गों के बीच जीवंत रिश्ता हुआ करता था। उनके बीच हँसी-ठिठोली होती, ज्ञान का आदान-प्रदान भी होता, वृद्ध अपने नाती-पोतों को दुलार और संस्कार देते, और इस तरह उन्हें सार्थकता का एहसास होता। लेकिन अब इस सबमें एक बड़ा अवरोध है, भाषा!
क्षमा, दया, स्वाभिमान, कृपा, संयम, त्याग, निष्ठा जैसे शब्द शहरी बच्चों के लिए नितांत अजनबी बन चुके हैं। उन्हें इनके अँग्रेज़ी शब्द चाहिए, इन नैतिक मूल्यों को समझना और आत्मसात करना तो दूर की बात है! बच्चों को काऊ और स्पैरो समझ आते हैं।
दादा-दादी और पौत्र-पौत्री की भाषा में बहुत अंतर आ चुका है। बहुत से बुज़ुर्गों के लिए इस अंतर को पाट पाना मुश्किल है। भाषा के कृत्रिम हो जाने का ख़तरा भी है, ऐसी भाषा जिसे वे बोल तो लें, परंतु शायद उनका दिल न बोलना चाहे।
घरेलू स्तर पर इस स्थिति को बदलने के प्रयास होने चाहिए। समाज के स्तर पर भी कोशिश की जा सकती है। समाज के आयोजनों में हिंदी संभाषण, लेखन इत्यादि से संबंधित प्रतियोगिताएँ हों, वृद्धजन बच्चों का मार्गदर्शन करें। हर घर के बच्चों की सहभागिता अनिवार्य बनाई जाए।
अमेरिका में जैसे दूसरी-तीसरी पीढ़ी के भारतीय बच्चों को हिंदी सिखाने के लिए मंदिरों में कक्षाएँ लगती हैं, भारत में भी वैसा हो तो अच्छा ही है।
हिंदी के लिए निष्ठापूर्वक कार्य करने के मामले में जैन समाज का अनुसरण भी किया जा सकता है। इस समाज के बड़े-बड़े साधु-संत हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए जागरूक रहते हैं।
कर्नाटक में जन्मे आचार्य विद्यासागर जी महाराज तो न केवल अनुयायियों को, बल्कि राजनेताओं को भी इसके लिए निर्देशित करते हैं। उन्होंने ‘मूक माटी’ नामक महाकाव्य सहित हिंदी और संस्कृत में कई पुस्तकें रची हैं।
इन्हीं सब प्रयासों का सुफल है कि जैन समाज से नाता रखने वाले प्रशासनिक अधिकारी, चिकित्सक, अभियंता, सनदी लेखाकार (सीए) भी हिंदी से प्रेम करते हैं, कई तो अभियान भी चला रहे हैं।
भारत में जातिगत समाजों और संगठनों के पास विशिष्ट शक्ति है। वे उस शक्ति का प्रयोग हिंदी भाषा के लिए कर सकते हैं। इस तरह वे बच्चों को सिर्फ़ भाषा से नहीं जोड़ेंगे, बल्कि उन्हें उनके वास्तविक परिवेश, संस्कार और रिश्तों से भी जोड़ेंगे। यही तो समाज का कर्तव्य है!
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
- विवेक गुप्ता (मधुरिमा, दैनिक भास्कर)