ये लड़कियाँ

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यूँ ही नहीं ये लड़कियाँ,
कहलाती सुन्दर हैं।
उनके दिल में प्रेम का,
समाया समन्दर है।

ना मानों तो जरा सोचो,
कभी इनके बारे में।
क्या है ख़ता इनकी,
विचारो इसके बारे में।

ना छेड़ती लड़कों को,
ये चलती राहों में।
ना बोलती अपशब्द हैं,
भरे बाजारों में।

ना घूरतीं लड़कों को,
गन्दी निगाहों से।
ना रोकतीं लड़कों को,
चलती राहों में।

ना फेंकती तेजाब हैं,
दिल टूट जाने पर।
ना काटती गला कभी,
मौका आने पर।

ना खींचती दुप्पट्टे,
भरे बाज़ार में।
ना मारती सीटियां,
चलती राह में।

बेशर्मों की बेशर्मी पर,
सदा ये लजातीं हैं।
गैरों गुनाहों की,
सज़ा ये पातीं हैं।

अब छोड़ो परम्परा ये,
तोड़ो विधान ये।
भला चाहो तो अपना,
रखो बेटी का मान रे।

करके विदाई देख लो,
बेटों की एक बार।
ससुराल में कटते हैं,
कैसे दिन हज़ार।

घर देर से आए जो,
ताने लाख सुनतीं है।
पति के देर होने पर,
चिन्ता में घुनतीं है।

देना है तो अब दे दो,
थोड़े संस्कार बेटों को।
तमीज़ दे दो थोड़ी सी,
जरा अब तो बेटों को।

जिएं ना लड़कियाँ ये,
अब डर के साए में।
कटे जीवन उनका भी,
खुशियों के साए में।

स्वरचित
सपना (स. अ.)
प्रा.वि.-उजीतीपुर
वि.ख.-भाग्यनगर
जनपद-औरैया

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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