माॅ आखें खोलो

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गांव की सरहद पर ही उसने ड्रायवर को गाड़ी रोकने का बोल दिया था । उसकी गाड़ी के रूकते ही साथ वाली अन्य गाड़ियां भी रूकती चली गई थीं । चपरासी ने गाड़ी का दरवाजा खोल दिया था । उसके गाड़ी के नीचे उतरते ही सुरक्षा जवानों ने उसे कव्हर कर लिया था । गाड़ी से उतरकर उसने चारों ओर नजर घुमाई । गांव के बाहर कुछ झापेड़ बने हुए थे जिनमें कुछ नंग-धंड़ग बचे खेल रहे थे । वह भी ऐसे ही खेलता था इन्ही गलियांे में छील-छिलाई तो कभी लंगड़ी । एक पैर को उंचा कर लिया जाता और एक ही पैर से चलकर किसी को छूना होता वह अक्सर हार जाता था । ठंड के दिनों में अक्सर अंडा गिपड़ी खेलते । पुराने कपड़ों की गेंद बनाकर कबेलू की गोल टुकड़ोें को एक के उपर एक रख कर उन्हें गिराया जाता । दो टीम होती एक गिराने का काम करती और एक रोकने का । पास में ही होगा माॅ का चबूतरा उसने अपने सिर को उंचा कर देखने का प्रयास किया उसे चबूतरा नजर नहीं आया बरगद के विशालकाय पेड़ के नीचे बने इस चबूतरे पर बैठकर चैपड़ या लुकाछिपी का खेल खलते । नंदू अक्सर जीत जाता था । उसकी स्मृतियों में एक छवि बननी शुरू हो गई थी गोल मटोल चेहरा, फटी बनियान और चेहरे पर शरारत ‘‘चलो यार आज लंगड़ काका को परेशान करते हैं’’ सारा झुंड उसके पीछे हो लेता । लंगड़ मामा पटैल के बगीचा की रखवाली करते थे । बगीचा में बिही, संतरा से लेकर जामुन आमों तक के कई पेड़ लगे थे । जहां लंगड़ काका बैठे होते पूरा समूह वहीं पास में छिपकर बैठ जाता और लंगड़ काका को सुनाई दे सके इतनी जोर से बोलते
‘‘ये तू बिही के पेड़ पर काय चढ़ रहो है’’ छपाक से एक पत्थर पेड़ की ओर फेंक देते । काका समझते कि बच्चे बिही के पेड़ से बिही चुरा रहे हैं वो जोर से हुरकारते और पेड़ की और दौड़ लगा देते । उनका बांया पैर टेढ़ा था इस कारण वे लगभग कूदते से दौड़ते । काका पूरे बगीचा का चक्कर लगा आते पर उन्हें कोई नजर नहीं आता इस बीच उनके चिल्लाना जारी रहता । थक हार कर वे बैठ जाते उनके बैठते ही बच्चे फिर जोर से खुसर-पुसर करते ‘‘काय रे तू इतनी सारी बिही तोड़ लाया और अब फिर जा रओ है’’ फिर एक पत्थर हवा में फेंका जाता । काका के कानों में जैसे ही शब्द पड़ते वे अपनी सारी थकान भूलकर फिर चिल्लाने लगते ।
काका को परेशान कर हम लोग फिर चबूतरे पर बैठ जाते जैसे कुछ हुआ ही नहीं है, हम जानते थे कि काका ढ़ूंढ़ते यहां जरूर आयेगें
‘‘काय मोड़ी-मोड़ा…….कोई बिही चुराके लाओं है का’’ ।
हम अंजान बने रहते है । वे फिर चिल्लाते । अबकी बार नंदू जबाब देता
‘‘काका इते मोडी़ किते है, सब मोड़ई मोड़ा हैं और हम तो कबहुं बा तरफे हैं जात तक नई हैं ’’ । हम उन्हें अनदेखा कर खेलने का अभिनय करने लगते । काका कुछ देर तक बड़बड़ाते रहते फिर चले जाते हम ताली बजाकर आज के आंनद का उत्सव मनाते ।
उसके ओठों पर हंसी तैर गई थी ।
‘‘साब आगे कीचड़ है, आप गाड़ी पर ही बैठ जायें’’ उसके सेवक के चेहरे पर चिंता की लकीरें थी ।
‘‘नहीं……..मैं पैदल ही चलूुंगा …….’’ वह आगे बढ़ गया था ।
कच्चे मकानों से घिरा उसे माॅ का चबूतरा दिखाई दे गया था । वह चबूतरे के सामने खड़ा हो गया था । चबूतरे के बीचों बीच कुछ पत्थर रखे थे जिन्हें माॅ की मूर्ति माना जाता था । उसने मन ही मन उन्हें प्रणाम किया । बचपन में माॅ उंगली पकड़ कर यहां लाती थीं, हलुआ-पुड़ी का का भोग लगाती । वह ललचाई नजरों से हलुआ पुड़ी को देखता रहता था । माॅ झुक कर प्रणाम करतीं
‘‘ हे माॅ एक ठौ मोड़ा है जाकी लाज बनाये रखना’’ ।
पत्थर मौन रहते पर माॅ की आंखों से आंसू बहने लगते । वह माॅ को खंीचकर उठाता । उसके सामने माॅ की तस्वीर उभर आई थी । एक दुबली-पतली काया । कभी सफेद रही साड़ी सिर पर से पल्ला कभी नहीं हटता, कानों में सोने की झुमकी, नाक में लोंग और हाथों में पहले सोने की चूड़ि़यां होती थी पर धीरे-धीरे सोने की चूड़ियां गायब होती चली गई, कानों से झुमकी गायब हुई और नाक में भी सोने की लोंग की जगह एक लकड़ी डली नजर आने लगी । जब समय मिलता रामायण जी खोल के बैठ जाती और लय के साथ चैपाईयां पढ़ती, पढ़ते-पढ़ते कभी आंखों से आंसू बह जाते तो कभी प्रसन्नता से ओंठ मुस्कुरा जाते
‘‘माॅ कितना पढ़ी हैं आप’’
‘‘चैथी पास हंू………..पुराने जमाने की……’’ माॅ गर्व से बताती ।
गांव के लोग उन्हें मंझली बहू बोलते ।
चबूतरे की परिकमा सी कर ली थी । उसे पुरानी निशानियों की तलाश थी जो अब गुम हो चुकी थीं । एक बड़ा सा पत्थर जरूर अभी भी वहीं रखा था । एक दृश्य सामने आने लगा था ‘‘चूड़ामन काका’’ का । बांसुरी बजाते थे यहीं बैठकर । एक साधारण सी बांसुरी होती थी पर जब वे उसे ओठों के पास रख उसमें हवा भरते तो मानो बांसुरी बोल उठती
‘‘सावन की महिना…………..पवन करे शोर…………’’ ध्वनि मानो आज भी सारे वातावरण में गूंज रही है । उसे यह गाना बहुत अच्छा लगता था । चूड़ामन काका बांसुरी में इसकी ध्वनि भी बहुत अच्छी निकालते थे । मैं जब भी उनके पास बैठता था तो यही गाना सुनता था उनसे । बांसरी की लय पर पक्षी भी थिरकते नजर आने लगते थे । छोटे से गांव की चारों दिशायें सावन के महिने से सराबोर हो जाती थीं । गाते-गाते सुधबुध सी खो बैठते थे काका । गाना शुरू करने के पहिले और खत्म करने के बाद वे बांसुरी को माथे से लगाते । उनकी आंखों में चमक होती सांस भरने के कारण गाल लाल हो जाते ।
निर्जीव पत्थर का अक्श गायब हो चुका था ।
वे झोपड़ियां से आगे निकल चुके थे । वैसे तो वे चाहते तो सीधे रास्ते जाकर भी गांव में प्रवेश कर सकते थे पर उसे उत्सुकता पुराने तालाब और खप्पर वाले झोरे को देखने की भी हुई थी इसलिए वह पतली संकरी राह पर मुड़ गया था । उसके साथ के लोगों का समूह यांत्रिक ढंग से उनके पीेछे हो लिया था । सुरक्षाकर्मी उसे घेरे हुए थे और उनका खास सेवक उनसे बिल्कुल सट कर चल रहा था । उसने थर्मस में से पानी निकाल कर उन्हें पिलाया था । रास्ता उबाड़-खाबड़ था वह साावधानी से कदम रख रहा था इसके बाबजूद भी वह लड़खड़ा जाता वह रामदीन का सहारा ले लेता । पहले वह ऐसे रास्तों पर दौड़ता था पर अब उसकी आदत खत्म हो चुकी है । शहर के रास्ते कांक्रीट भरे हो गये हें, एक दम समतल, ऐसे ही रिश्ते हो गये हैं समतल से । रिश्तों में उतार-चढ़ाव खत्म हो गया है
‘‘बरौनी काकी बोला करो,,,,,,,,वो बड़ी हैं……अपने से बड़ों के सीधे नाम नहीं लिए जाते….’’माॅ उसे बोलती । वे ख्ुाद भी काकी या बऊ या बहु ही कहती थी उनके सम्बोधन में सामने वाले के प्रति सम्मान होता था । उसने माॅ की इस बात को गांठ में बांध लिया था । वह भी सभी को उचित सम्मान देकर ही बात करता था । इस वजह से भी उसके अधीनस्थ भी उससे प्रसन्न रहते ।
तालाब तो गायब हो चुका था । झोरे का अस्तित्व था पर उसमें पानी नहीं था । कभी इसमें दो तीन पुरूष पानी हुआ करता था । गांवों में पानी की गहराई ऐसे ही नापी जाती थी ।
‘‘छपाक…………..छपाक……….’’
किसी ऊॅचे स्थान से रम्मू ने छलांग लगाई थी झोरे में ……….कुछ गहरे तक जाकर फिर उसका सिर पानी के बाहर दिखाई देने लगता था ।
‘‘बड़ी-बड़ी मछरियां आई हैं रे झोरे में’’ वह चिल्लाकर बताता ।
‘‘छपााक………..छपाक………’’ कुछ बच्चे और कूद जाते । वे मछरियों के पीेछे तैरते रहते । वे मछरियों को पकड़ते नहीं थे ।
‘‘ये ने कर यार….मछरियां तड़फ तड़फ के मर जेहें’’ वे उन्हे ंवापिस पानी में छोड़ देते । बच्चे थे पर मन में दया के भाव थे । झोरे का मजा गरमियों में सबसे ज्यादा आता था । स्कूलों की छुट्टियां रहती थीं इस कारण दिन भर झोरे में कूदते और तैरते रहते । माॅ कहती
‘‘देखो बसकारे में पानी भरे झोरे में कभी ने कूदने’’
मुन्ना से नहीं रहा गया था । रात भर की भारी बारिश के चलते खप्पर वाला झोरा लबालब हो गया था । हम झोरा देखने आये थे । आज झोरा डरावना लग रहा था । ‘‘सूं………सूं………’’ की आवाज झोरे के अंदर से आ रही थी बहाव इतना तेज था कि पल भर में चीज गायब हो जाती । हम कागज की नाव बनाकर लाये थे पानी में डालते ही नाव बह जाती । मुन्ना बहुत देर तक देखता रहा था झोरे को । अचानक उसे एक छोटा सा बकरी का बच्चा पानी में बहता दिखाई दिया था
‘‘छपाक……..’’ मुन्ना तेज झोरे में कूद गया था । उसने बकरी के बच्चे को तो पकड़ लिया था पर बहाव इतना तेज था कि वह खुद को बहने से नहीं रोक पाया था । उसे बहता देख हमने समवेत आवाज लगाई थी हम घबरा गये थे । गांव वाले जब तक इकट्ठा होते तब तक मुन्ना दूर तक बहता चला गया था । उसकी सांसें थम चुकी थी । उसके कानों में मुन्ना की माॅ केी चीत्कार सुनाई देने लगी थी । वह भी तो बहुत रोया था उस दिन । दो दिन तक उसके मंुह में निवाला अंदर नहीं जा पाया था । माॅ ने उसे बहुत समझाया था । दुःख के घावों की तासीर होती है कि वह धीरे-धीरे भरा ही जाता है । उसकी आंखों से आंसू बह निकले ।
गांव में बहुत सारे पक्के मकान बन गए थे । इन पक्के मकानों में आंगन नहीं होते । कुछ घरों के सामने जरूर मिट्टी के बने आंगन दिखाई दे रहे थे आंगन के प्रवेष द्वार पर दोनों ओर टिपटी बनी थीं जिनमें माटी से कुछ चित्र गढ़े गये थे । गोबर से लिपे और छुई की ढिग लगे आगंन उसे बहुत अच्छे लगते थे । वह रूक कर उन्हें देखने लगा था । कच्ची दीवारों पर शायद हिंचरी पुती थी गेरूआ रंग की । उसमें विभिन्न रंगों से कुछ चित्र बनाये गये थे ना समझ आने वाले पर बहुत सुन्दर लग रहे थे ं बड़े-बड़े चित्रकार ऐसी पेंटिंग्स बना कर लाखों रूपयें में बेच देते हैं पर गांव की इन पारंपरिक चित्रकारी को महत्व नहीं मिलता । वह देगा उसके पहले ही सोच लिया था इसलिए वह बड़ी बारीकियों से उन्हें देख रहा था । एक मोटा चश्मा लगाये बहुत बुजुर्ग महिला बैठी थी सूपा लिए कोई अनाज साफ कर रही थी
‘‘कौन………..?’ आवाज कर्कश थी गुस्से से लबालब ।
‘‘मैं मंझली बहू का मोड़ा………….’’ मुझे लगा यही परिचय देना ज्यादा बेहतर रहेगा ।
‘‘अरे !………….आजा…………कुस्सू होगा……..’’ अब उसकी आवाज में नम्रता थी ।
‘‘हाॅ…………….ठीक……………है माॅ जी…………..मैं तो जा ही रहा हूॅ’’
‘‘काय……………मैया से मिलवे आओ हुईये………..बहुत दिना बाद याद आई’’
मैं उनके ताने को समझ गया था । इस बार सचमुच बहुत दिनों के बाद आ पाया था । पढ़ाई और फिर काम्प्टीशन एक्जाम की तैयारी, फिर नौकरी लग गई तो पहिल ट्रेनिंग पर जाना पड़ा फिर पदस्थापना हुई । कलेक्टर बन गया था वैसे माॅ को तो बता चुका था पर वे ज्यादा कुछ समझ नहीं पाई थीं । बीच में माॅ ने फोन किया था कि उनकी तबियत खराब है आकर देख जा पर वो आ नहीं पाया था । अब जब सब कुछ सामान्य हो गया था तो उसे रह रह कर माॅ क याद आ रही थी इसलिए वह माॅ से मिलने चला आया था ।
‘‘हाॅ आ नहीं पाया……………..पर आज तो आ ही गया न’’ । उसे उनकी बात अच्छी नहीं लग रही थी ।
माॅ ने कभी नहीं बताया था कि वो उसकी पढ़ाई के लिए पैसों का इंतजाम कैसे कर रही थीं । पिताजी तो उसके बचपन में ही गुजर गए थे । माॅ ने अकेले दम पर उसे पढ़ाया था । गावं तक तो सब चलता रहा पर जब वह शहर पढ़ने आया तब खर्चा बढ़ गया था । उसकी पढ़ाई और शहर बड़ा होता चला गया तो खर्चा भी बड़ा होता गया । माॅ को बोलता तो माॅ पैसे भिजवा देती कहाॅ से कैसे यह प्रश्न उसने कभी नहीं किया और न ही माॅ ने कभी बताया । जब उसने नौकरी लगने की बात माॅ को बताई थी तो माॅ ने इतना ही कहा था कि बेटा हो सके तो कुछ रूपये जल्दी भेजना बहुत सारा कर्जा है लोग अब परेाान करने लगे हैं । पर इस बात को भी तो बहुत दिन हो गये हैं । माॅ ने इसके बाद उससे कभी बात नहीं की थी वह भी भूल गया था ।
चुढ़ेल वाली इमली के पेड़ को वह खोज रहा था । गांव के मुहाने पर जहां मशानघाट है वहां एक बड़ा सा इमली का पेड़ लगा था । सब बोलते थे कि इस पेड़ पर एक चुढ़ेल रहती है । शाम का धुंधलका फैलने के पहिले से ही लोग वहां से निकलना बंद कर देते थे । माॅ उसको भी सख्त हिदायत दे दी थी कि दिन हो रात उस पेड़ के पास से कभी नहीं निकलना । एक और सेमरा का पेड़ था लोग बताते थे कि वहां भी एक भूत रहता है । वह कभी वहां से भी नहीं निकला था हाॅ देर से जरूर देख लेता था पेड़ों को और सोचा करता था कि आखिर से भूत होते कैसे हैं
‘‘नन्ही काकी को चुड़ेल लग गई है’’ माॅ को बरोनी काकी ने बताया था ‘‘कोई झाड़ फूंक करने वाले को बुलाया है’’ । माॅ ने भगवान जी के सामने एक अगरबत्ती जला दी थी ।
‘‘माॅ ……..मैं………नन्हीं काकी को देखकर आऊं………मैंने कभी चुड़ैल नहीं देखी…माॅ जाने …………..दो न………’’
‘‘नहीं……….मना कर दिया न’’ माॅ की आवाज में सख्ती थी ।
मैं माॅ से छिपकर गया था उन्हें देखने । नन्हीं काकी जोर जोर से चिल्ला रहीं थी, हवा में बातें कर रहीं थीं कुछ सामान सामने आ जाता तो उसे उठाकर फेंक देतीं । वह उन्हें देखकर डर गया था । वी नवरात्री में जिन महिलाओं को देवीजी आती थी वे भी ऐसी हरकतें करती थी वह उन्हें देखकर भी डर जाता था । माॅ कहती थी कि पैर छुओ देवी माॅ का आाीर्वाद लो पर चुढ़ैल बनी नन्ही काकी को देखने से ही मना कर दिया था । पर मैं अपनी जिद्द पर गया था और उन्हें देखकर मैं डर के मारे घर आ गया था और फिर नन्ही काकी से कभी नहीं मिला । इमली का पेड़ कहीं नजर नहीं आ रहा था । हो सकता है कि चुढ़ैल के भय से उसे काट दिया हो या वह खुद ही गिर गया हो आखिर चुढ़ैल के बोझ को लेकर वह कब तक खड़ा रहता । वह मुस्कुराया अब उसे चुढ़ैल के अस्तित्व पर ही भरोसा नहीं है ।
छोटी बाखर के पास से गुजरा वह फिर मझली बाखर, उसका घर तो बड़ी बाखर के पीछे बना था । बाखर अब सूनी थीं । बाखर के सामने दो लकड़ियों के बीच में एक पटिया फंसा कर उसे बैठने के लिए स्थान बना दिया जाता था । पटैलसाब एक बड़े से तख्त पर बैठ जाते और और सारे लोग इस पटिया पर । दिन भर महफिल जमी रहती । कोई प्रतिष्ठत व्यक्ति आ जाता तो अंदर से चाय बना कर भेज दी जाती वरना बीड़ी और जरदा तो दिन भर चलता रहता । बाखर के सामने से कोई भी गुजरे उसे झुक कर नमस्कार करनी होती थी यह गांव की परंपरा सी थी । तीज त्यौहार पर बाखर में ही सबसे ज्यादा रौनक होती । गांव की कजलियां तब तक नहीं उठती थी जब तक बाखर के सामने गांव भर के कजलियों के दोना इकट्ठे न हो जाते । दोना इकट्ठे हो जाने के बाद लोकगीत गाये जाते गांव के लोग दोनों का घेरा बनाकर नाचते गाते फिर कजलियां निकाल कर पटैल साब को दी जातीं तब यह त्यौहार शुरू होता । होली में भी यहीं परंपरा थी । गांव केा हरिकिसन महिलाओं के कपड़े पहन कर नाचता था । हरि गांव की रामलीला और नाटक में भी काम करता ओर अक्सर वह महिलाओं के पात्र को ही निभाता था । चेहरे पर ढेर सारा पावडर पोतकर रंगबिरंगी चमकीली लगाकर वह तैयार होता । राजा हरिश्चन्द्र के नाटक में वह हरिश्चन्द्र की पत्नी का रोल करता । हरि मिला था एक बार शहर में अपने बच्चे का एडमीशन कराने आया था । उसका बात करने का अंदाज, उसके चलने का अंदाज वह ही महिलाओं वाला हो गया था । वह हर पात्र को आत्मसात कर लेता था शायद इसी कारण उसने ही बताया था कि अब गांव में न तो नाटक होते हैं और न ही रामलीला । घर-घर टी.व्ही लग गए हैं लोग टी.व्ही. के सीरियल देखते हैं । गांव बदल गया है अब उसके चेहरे पर एक उदासी थी उदासी में प्रहसन नहीं था वह वास्तविक थी । होली पर बाखर में नाच गाना हो चुकने के बाद गांव में रंग खेला जाता । अब सब कुछ सूना है । बाखर सूनी है, बल्कि पूरे गांव में ही एक अजीब ढंग की खामोशी है ।
उसे पानी चाहिये था । उसका समझदार सेवक समझता था इस कारण उसे कहने की आवश्यकता नहीं हुई थर्मस से पानी भरकर वह गिलास उनकी ओर बढ़ा चुका था । बस अब कुछ कदम ही और रह गए हैं घर को ं घर में माॅ होगी उसके सामने वह अचानक पहुंचेगा । उसने जानबूझकर अपने आने की सूचना नहीं दी थी, वह अचानक पहुंचकर माॅ को चैका देने वाला था । उसे उत्सकुता थी की माॅ का चेहरा उसे यूं अचानक अपने सामने आया देखकर कैसा लगेगा । दिन भर खेलकर जब वह घर आता था तो इस भय से माॅ अभी नाराज होयेगीं आते से ही सीधा माॅ की गोद में बैठ जाता था ‘‘माॅ देखो…..बहुत तेज सिर दुःख रहा है’’ माॅ अपनी सारी नाराजगी भूलकर उसका सिर दबाने लगती थीं । वह उनकी गोदी में लेटे लेटे ही सो जाता था । माॅ ही उसे जगाती थीं जबरन खाना खिलाती थीं और फिर सुला देती थीं । माॅ की गोदी जैसा सुकून उसे कभी कहीं नहीं मिला । बच्चे माॅ की कमजोरी होते हैं बच्चों का कोई्र भी दुःख दर्द माॅ अपने अंतरतम तक महसूस करती है । पर बच्चे माॅ के दर्द को महसूस नहीं कर पाते । उसे अहसास हो रहा था कि उसे और पहिले माॅ से मिलने आना था बल्कि अक्सर मिलते आते रहना चाहिये था । उसके चेहरे पर पश्चाताप के भाव थे ं पर इस बार माॅ को साथ लेकर ही जायेगा इस दृढ़ निश्चय के भाव भी उसके चेहरे पर उभर आये थे ।
उसके साथ आये अधिकारी और कर्मचारी साहब के कदमों का अनुसरण कर रहे थे । वे केवल इतना समझ पाये थे कि साहब अपने पुराने गांव आये हेंै । वे साहब के पीछे-पीछे चल रहे थे उनके पीेछे पुलिस के जवान भी थे । गांव के लोग हैरानी के साथ यह सब देख रहे थे ं वे समझ ही नहीं पा रहे थे कि गांव में हो क्या रहा है और पुलिस गांव में क्यों घूम रही है । वो बूढ़ी माॅ जिनके यहां साहब ने आंगन और टिपटी देखी थी वहां जब अपना परिचय दिया तब सभी को समझ में आया कि मझली बहु का बेटा साहब बन गया है और अपनी माॅ से मिलने आया है । गांव के लोग उत्सुकतावश उनके साथ हो लिए थे । साहब के वाहन खाली पीछे-पीछे चले आ रहे थे ।
उसका घर पुराना और कच्चा था । मिट्टी की दीवाले और पुराने कबेलू की छत जो जगह-जगह से रोशनी देती थी । बचपन ऐसे ही गुजरा था उसका पर अब उसे हैरानी हो रही थी कि ऐसे घरों में केसे रहते हैं लोग । माॅ हर साल नवरात्रि के आने के पहले आंगन को पीली माटी लगाकर नया कर देती थीं फिर उसे गोबर से लीपती थीं ं कुछ वर्षो के अंतराल में वे जवारे भी रखती थीं । नौ दिन बगेैर आहार के वे व्रत करती नौ दिन बाद जब जवारे विर्सजन के लिए जाते गांव के सारे लोग साथ होते । माॅ अपनी सुरीली आवाज में लोकगीत गातीं जिसे ‘‘जस’’ गाना कहा जाता
‘‘माॅ की उड़ी चले रे चुनरी माॅ आइयो गांव’’ उनकी सुरली आवाज वो बड़े ध्यान से सुनता था । माॅ देवी माॅ से घर की खुशहाली की मन्नत मांगती उनकी आंखों से आंसू बहते रहते । माॅ को अपना दुःख याद आ जाता । बहुत दुःख सहन किये हें माॅ ने । पिताजी की मृत्यु केे बाद तो जैसे दुखों का पहाड़ टूट गया था । घर में माॅ और बेटा दोनो ही थे । बेटा दुधमुंहा ऐसे में माॅ की आंखों का पानी हमेशा बरसता रहता । फिर बेटा भी चला गया पढ़ने अब माॅ के लिए सब कुछ सूना हो गया था । कभी मन होता तो खाना खा लेती नहीं तो दो-दो दिन तक भूखी ही रही आती । फटी घोती उसे धो लेती और फिर पहन लेती । आंखों में उदासी कोइ्र पूछने वाला नहीं था कि तबियत खराब है तो दवा ली की नहीं’’ । माॅ ने अब इस सब को सहने की आदत डाल थी । एक ही स्वप्न था कि बेटा पढ़ लिख जायेगा तो वह अपना बाकी का जीवन सुख-चैन से काट लेगी । बेटा पढ़ लिख भी गया और उसकी नौकरी भी लग गई पर माॅ के दिन नहीं फिरे । वह सुबह से शाम तक टकटकी लगाए रास्ते को देखती रहती । जरा सी आहट होती तो लगता बेटा आ गया हे । उसका मन करता कि वह अपने बेटे को सीने से लगा ले उसके माथे को पुचकार ले पर बेटा नहीं आया । माॅ की आत्मा कचोटती रहती । उसका शरीर जर्जर हो चुका था । वह बीमार रहने लगी थी । उसकी हिम्मत पंलग से उठने तक की नहीं होती । वह असहाय सी भूखी-प्यासी पड़ी रहती । घर में दाना नहीं था कोई कब तक उधार देता काम कर पाने की क्षमता उसमें थी नहीं । वह पानी पीकर सो जाती ।
वह पिछले कुछ दिनों से बीमार थी और यूं ही असहाय से बिस्तर में पड़ी थी । कई दिनों से उसके मुंह में दाना तक नहीं गया था । उसे बार-बार आपने बेटे की याद आ रही थी । उसे लगने लगा था कि अब उसके पास वक्त कम बचा है एक बार अपने बेटे का चेहरा देख लेती । उसने बेटे के पास खबर भी भिजवाई थी पर अभी तक नहीं आ पाया ‘‘किसी काम में उलझा होगा, जैसे ही उसे फुरसत मिलगी वह जरूर आ जायेगा हे प्रभु ! मेरे बेटे के आने तक मुझे जीवित रखना’’ वह आंखें बंद कर भगवान से प्राथना करती ‘‘मेरी नैया लगा दो पार हे माॅ दुर्गा’’ वह मन ही मन भजन गाती रहती । इससे उसे हिम्मत मिलती थी । सूने पड़े घर की इकलौते पंलग पर वह आंखे बेद किये पड़ी थी तभी उसने बाहर कुछ आहट सुनी । गाडियों के रूकने की आवाज भी उसके कानों में पड़ी थी । ऐसा लग रहा था कि बहुत सारे लोग इकट्ठा हो रहे हैै, शायद उसके घर के सामने ही ।’’
‘‘हे भगवान मेरी रक्षा करना’’ भय के चलते उसकी संासें तज चलने लगी थी इतनी तेज की उसका बूढ़ा शरीर उन्हें सहन नहीं कर पा रहा था ।
‘‘माॅ………….माॅ…..’’ उसके कानों में आवाज गूंजी थी उसे लगा कि उसका बेटा उसे पुकार रहा है पर उस ख्याल को उसने अपने से दूर कर दिया क्योंकि उसे तो ऐसा अक्सर ही लगता था ।
‘‘माॅ……….माॅ’’ फिर वही आवाज ये आवाज तो मेरे बेटे की ही है । उसने पूरी संास खींचकर अपने बेटे को पुकारना चाहा पर आवाज हलक के नीचे ही गुम होकर रह गई । उसका शरीर और निढाल हो गया । दो पैर तेजी से उसकी और लपके ‘‘माॅ……….देखो तुम्हारा बेटा आ गया माॅ’’ उसे अपनी माॅ से मिलने की ललक थी । उसने एक दुबली पतली काया को पलंग पर पड़े देखा था ‘‘क्या यही माॅ है’’ एक प्रश्न उसके दिमाग में घूमा । वह पलंग की ओर दौड़ा । माॅ निढाल पड़ी थी । उसने माॅ का चेहरा अपने हाथ में ले लिया था ‘‘ माॅ आंखें खोलो माॅ ………तेरा बेटा आया है’’
माॅ ने पूरा प्रयास कर आंखे खोल कर अपने बेटे को देखा । भावावेश में उसने माॅ के शरीर को अपने हाथों में उठा लिया था । माॅ आत्मिक शांति का अनुभव कर रही थी । वह बैचेन था माॅ का हाथ उसके माथे की ओर उठा पर माथे तक पहुंच नहीं पाया । शरीर निढाल होता चला गया माॅ का निर्जीव शरीर उसकी बांहों में झूल रहा था ।

कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
जिला-नरसिंहपुर (म.प्र.)

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