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किसी की गजल थी
तो गुनगुनाई गई थी कभी,
किसी की रुबाई थी तो
साज पे गाई गई थी मैं।
मयखानों में साकी बनी तो
सहलाई गई थी मैं,
रुख पे नकाब सजा था
तो सराही गई थी मैं।
बीच राह नल छोड़ गया
खोई निशानी दुष्यंत भूल गया,
कुदृष्टि इंद्र की थी
अहिल्या बना महर्षि चला गया।
लांछन धोबिन का था
सीता को वन भेज,
राम चला गया
मर्यादा की दी दुहाई,
उर्मिला को त्याग वन में
लखन गया।
था मोह सत्ता का तो
राधा को कान्हा छोड़ गया,
हीर बिलखती रह गई
रांझा मजबूर हो गया।
कहीं कमला कहीं रीता
कहीं सरिता कहीं नीता,
नाना नाम से
हर युग में यूंही नारी को छला गया।
मैं भी उनकी प्रतिमूरत बन
यूं ही एकांत में सिसक रही,
पीर की प्रतिछाया बन
छली गई ठगी सी बैठी हूं मैं।
अब न किसी की आँख का नूर हूं
नकिसी के दिल का सुकून हूं,
किसी की लांछना से
ठुकराई कोई हूर हूँ मैं॥
#डॉ. नीलम
परिचय: राजस्थान राज्य के उदयपुर में डॉ. नीलम रहती हैं। ७ दिसम्बर १९५८ आपकी जन्म तारीख तथा जन्म स्थान उदयपुर (राजस्थान)ही है। हिन्दी में आपने पी-एच.डी. करके अजमेर शिक्षा विभाग को कार्यक्षेत्र बना रखा है। सामाजिक रुप से भा.वि.परिषद में सक्रिय और अध्यक्ष पद का दायित्व भार निभा रही हैं। आपकी विधा-अतुकांत कविता, अकविता, आशुकाव्य आदि है।
आपके अनुसार जब मन के भाव अक्षरों के मोती बन जाते हैं,तब शब्द-शब्द बना धड़कनों की डोर में पिरोना ही लिखने का उद्देश्य है।
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Mon Nov 27 , 2017
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