रास्ते में मां

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छोटा बेटा जब लेने आया तो मां को यह समझ आ गया था कि बङ़े बेटे के यहां रहते हुए एक महीना बीत गया है।

शरीर में शक्ति नहीं थी,मन बैचैन हो रहा था, दिल बैठा जा रहा था, ऐसे में छोटे बेटे के घर सीढ़ियां चढ़ाना वश में नहीं लग रहा था उसे।”बेटा, दो दिन बाद ले जाना आज हिम्मत नहीं है” कहते हुए मां ने बेचारगी भाव से बेटे का हाथ पकड़ लिया।

“पर ये कैसे संभव है मां, मैं अॉफिस से आधे दिन की छुट्टी लेकर आया हूं। भैया-भाभी की भी बाहर जाने की प्लानिंग पहले से तय है।ये बैचैनी तो रोज रहती है तुम्हें” कहते हुए छोटे बेटे ने मां का हाथ पकड़ झटके से उठा लिया।

मां ने गीली आंखों को पोंछते हुए अपनी पोटली उठा ली।

अभी मां-बेटे के साथ रास्ते में ही थी कि बङ़े घर का बुलावा आ गया और मां एक हिचकी के साथ उधर ही मुङ़ गई।

तीये की बैठक में लोग पूछ रहे थे- मांजी कहां थी, बङ़े बेटे के पास या छोटे के पास।

दोनों बेटे एक-दूसरे का मूंह देख रहे थे। कैसे कहते- मां रास्ते में थी।

डॉ पूनम गुजरानी
सूरत

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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