किन्नर की कन्या

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गीता समाज भवन का हॉल लोगों से खचाखच भरा हुआ था।गद्दों पर बिछी हुई सफेद चादरें, अगरबत्ती की मीठी-मीठी खुशबू, राधेश्याम जी की तस्वीर के सामने फूलों का ढेर, तस्वीर पर चंदन की मालाएं, धीमे स्वर में गूँजता ओम शांति का संगीत,हजारों की संख्या में निर्विकार भाव से बैठे लोग पर पिनड्राप साइलेंट…जैसे सबके सब मूर्तिवत हो गये हों।

यूँ तो किसी भी शोक सभा का लगभग ऐसा ही मजमा होता है पर चूँकि ये डॉ. आरती जो इस कस्बे की जानी-मानी डॉक्टर थी उसके पापा की शोकसभा थी तो इस शोकसभा में कस्बे के सभी संभ्रांत, धनाढ्य, और बौद्धिक कहे जाने वाले लोग के साथ-साथ मध्यम और निम्न वर्ग के लोग भी बङी संख्या में उपस्थित थे।कुल मिलाकर देखा जाए तो शायद ही इस कस्बे का कोई घर ऐसा हो जहाँ से कोई न आया हो।

यहाँ बैठा लगभग हर व्यक्ति कहीं न कहीं, काया की नश्वरता , संसार की क्षणभंगुरता, इस जगत की झूठी मोह-माया के बारे में सोच रहा था। वैसे शमशान और शोकसभा दो ही ऐसी जगह है जहाँ कमीने से कमीना आदमी को भी वैराग्य उत्पन्न हो जाता है।पर इनसे बेखबर डॉ. आरती अपनी ही उधेड़बुन में डूबी हुई थी।

तभी घङी ने दस बजने की सूचना दी,शोकसभा नौ से दस बजे तक थी कई लोगों ने राधेश्याम जी को अपनी श्रद्धाजंलि दी।अब डॉक्टर सुधीर उठे और उन्होंने राधेश्याम जी के प्रति अपने भाव व्यक्त किये तथा आगन्तुकों से दो मिनट मौन की प्रार्थना की ।मौन समाप्त होने पर डॉक्टर आरती उठी और सीधे माइक पर आ गई ।उसने धीरे-धीरे बोलना शुरू किया-

चाकी चलती देख के दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।।
जन्म -मरण, सुख-दुख आशा और निराशा ये तो जीवन के अभिन्न अंग हैं। जो आया है उसे एक दिन जाना है।जीवन के रंगमंच पर किसने अपनी पारी कितने शानदार तरीके से खेली यह महत्वपूर्ण है।अर्थी के उठने से पहले जीवन को अर्थ देना ही कामयाब जीवन की निशानी है।आज मेरे पापा इस दुनिया में नहीं रहे पर उनके संस्कार मेरे पास सुरक्षित हैं।मुझे गर्व है अपने पापा पर , उनके हौंसलों पर, उनकी सहनशक्ति पर, मुझे इस बात का कोई दुख नहीं कि मैं एक किन्नर की कन्या हूँ…कहते-कहते डॉक्टर आरती की आँखें छलछला आई, आगे की आवाज गले में ही रुंध गई।

लोग धीरे-धीरे खुसर-पुसर करते हुए उठने लगे।डॉक्टर आरती हाथ जोङ़कर सबको विदा करती रही और उसकी आँखें निरन्तर बरसती रही।

लगभग दस मिनट बाद हॉल पूरी तरह खाली हो गया।रह गये सिर्फ हॉस्पिटल का स्टाफ, सुधीर और दो-चार बेहद करीबी लोग….।डॉक्टर सुधीर ने हॉस्पिटल के स्टाफ को जरूरी हिदायतें देकर विदा किया, ,नजदीकी लोगों को विदा करने के बाद अब सिर्फ डॉ.सुधीर और आरती ही शेष थे।

चलो आरती ,डॉ. सुधीर ने आरती का हाथ पकड़ते हुए कहा।आरती कुछ नहीं बोली, चुपचाप डॉ.सुधीर के साथ गाङ़ी में बैठ गई।

डॉ. सुधीर आरती की मनःस्थिति को समझ रहे थे और आरती तो मानों दूसरी ही दुनिया में चली गई थी।निष्प्राण, बेजान सी उसकी काया कुम्हलाए फूल की सी हो गई थी।दोनों के बीच पूरे रास्ते मौन पसरा रहा।

घर पहूँचते ही आरती अपने कमरे में गई और बुक्का फाङ़कर रोने लगी स्मृतियों पर लगा बाँध टूट गया था।डॉ. सुधीर ने उसे कुछ देर यूँ ही रोने दिया।वे अच्छी तरह जानते थे कि जख्म को ठीक करने के लिये मवाद का निकलना भी जरुरी है।जब रोते-रोते आरती की हिचकियाँ बंध गई तब वे उठे और पानी ले आये।पानी पीकर आरती शांत भाव से बैठी रही।यादव से कहकर सुधीर ने चाय बनवा ली।एक प्याला आरती को थमाकर खुद भी पीने लगे।

चाय पीते-पीते सुधीर को लगा आरती की आँखें रोते-रोते सूज चुकी है।यूँ तो सभी के लिये पिता का साया अनमोल होता है पर आरती की तो माँ भी बचपन में ही चल बसी थी।उसे पिता राधेश्याम ने ही बङ़ा किया, तमाम विपरीत परिस्थितियों में डॉक्टर बनाया।

किसी छोटी सी नाबालिग लङ़की को माँ के बिना पालना, स्वयं के सुख त्यागकर,शादी न करके बिना किसी मजबूत आर्थिक स्तर के अपनी बेटी के लिये उन्होंने जो कुछ किया वो तो कोई फरिश्ता ही कर सकता है।

सुधीर ने देखा ,आरती चाय खत्म करके तकिया लेकर लेट गई थी।उसने धीरे से आरती का हाथ दबाया और उठते हुए बोला – मैं हॉस्पिटल जाता हूँ तुम आराम करो ।

आरती ने कोई जबाव नहीं दिया , बस लेटे-लेटे गरदन हिला दी।

सुधीर ने जाते-जाते दरवाजा बंद कर दिया।अब आरती अपने कमरे में बिल्कुल अकेली थी पर यादों का एक ऐसा जखीरा आस-पास सुलग रहा था कि वो बस पिघलती ही जा रही थी।

वो तब सात बरस की रही होगी जब उसकी माँ को कोई बहुत बङ़ी बीमारी हो गई थी।बहुत बाद में उसे पता चला उसे कैंसर हुआ था।

हमेशा गुलजार रहने वाला घर अब सूखा पौधा बनकर रह गया था।डॉक्टर ,दवाइयां, घर पर नौकरानी का इंतजाम, हाल-चाल पूछने के लिये आने वाले मेहमान, आरती की देखभाल ,पढाई,पापा ने दिन-रात एक कर दिया था पर तीन साल चलने वाला यह सिलसिला माँ की मौत पर ही खत्म हो पाया।

माँ की बीमारी के दौरान ही पापा को अपनी नौकरी गंवानी पङ़ी हालांकि ये सब बातें आरती बहुत बाद में जान पाई।

पत्नी के जाने के पश्चात बच्ची की बहुत बङ़ी जिम्मेदारी रधेश्याम पर आ पङ़ी थी।बेशक नानी ने कहा- कि बच्ची को उसके पास भेज दिया जाये और राधेश्याम दूसरी शादी कर ले , अभी तो उसकी उम्र ही क्या हुई है सिर्फ चालिस साल….पर राधेश्याम को यह मंजूर नहीं था।
बिन माँ की बच्ची का पिता आभी जिन्दा है अम्मा,आप फ्रिक मत करो मैं पाल लूँगा कहते-कहते रो पङ़ता था वो।दस साल की आरती नासमझ होते हुए भी इतना तो जानती ही थी कि उसके पापा उससे बहुत प्यार करते हैं।

पत्नी के तेहरवीं के बाद नाते-रिशतेदारों ने अपनी राह पकङ़ी।अब रह गये थी माँ को याद करके रोती- बिलखती आरती और अपने जज्बातों को छुपाकर मुस्कुराता राधेश्याम ।

आरती तब चौथी कक्षा में पढती थी।राधेश्याम ने दिनभर के लिए एक आया का इंतजाम किया।हालांकि आजकल उसका हाथ बहुत तंग था।नौकरी की जद्दोजहद में उसे दर-दर की ठोकरें खानी पङ़ रही थी।आज जब पढे-लिखे नौजवान बेरोजगार बैठे हैं तब उस दसवीं फेल को कौन नौकरी देता?पहले की अच्छी खासी नौकरी पत्नी की बीमारी के समय घर पर ज्यादा और नौकरी पर कम ध्यान देने के कारण चली गई थी । वहाँ भी कई बार मिन्नतें की पर कोई बात नहीं बनी….।

घर का खर्च, आया की तन्ख्वाह,आरती की पढाई….इन्हीं चिंताओं की वजह से वो असमय बूढा दिखने लगा था। बालों में सफेदी झाँकने लगी, चेहरा झुरियों से भर गया,डॉक्टर के अनुसार उसे शुगर भी हो गई थी।

वो क्या करे, दप्तरों के चक्कर काटते- काटते वो थक गया था ।कभी स्टेशन पर कुली का काम करता ,कभी किसी सेठ के यहाँ बोरियों को ढोने का काम, कभी किसी रेस्टोरेंट में वेटर का काम करता तब जाकर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो पाता पर स्थाई इंतजाम कुछ भी नहीं हो पा रहा था।ऐसे में पत्नी का एकमात्र सपना कि बेटी को डॉक्टर बनाना है कैसे पूरा होगा सोचता तो उसे चक्कर आ जाते, आँखें बरस पङ़ती….।

आखिर बङ़े कठोर ह्रदय से एक निर्णय लिया, उसने अपने सपनों का घर जिसे पाई-पाई जोङकर बनाया था बेच दिया और पैसे बैंक में जमा करवा दिये ताकि उसके ब्याज से आरती की पढाई चलती रहे।तब वो कहाँ जानता था कि आजकल की मंहगी पढाई में ये पैसा तो गर्मी में किसी खजूर के पेङ़ की छाँव की तरह है।

खैर….वो फ्लैट छोङ़कर एक खोलीनुमा मकान में आ गया पर वहाँ आस-पास के अनपढ़, बेपरवाह, गाली -गलौज करने वाले बच्चों के साथ आरती को रखना उसे गंवारा नहीं हुआ।फलतः छाती पर पत्थर रखकर उसने आरती को हॉस्टल भेजने का निर्णय लिया।

भविष्य में उसका यह निर्णय सही साबित हुआ पर आरती को अच्छी तरह याद है कि वो हॉस्टल जाने से पहले कितना रोई थी।

आरती पढने में शुरू से ही अच्छी थी।हॉस्टल में मिलने वाली उचित देख-रेख
में उसकी उन्नति का ग्राफ दिन- प्रतिदिन बढता ही गया।छुट्टियों में सभी लङ़कियाँ अपने घर जाती पर राधेश्याम ने आरती को कभी घर नहीं बुलाया।जब भी छुट्टियां होती तो वो खुद आरती के पास चला आता और दोनों बाप-बेटी कहीं पेइंग गेस्ट बनकर एक अच्छा समय साथ-साथ गुजारते।जब कभी आरती गाँव आने की जिद करती,राधेश्याम कभी प्रेम से तो कभी डाँटकर मना कर देते।जाने क्या था कि राधेश्याम ने कभी बेटी को उस गाँव में नहीं बुलाया….।धीरे-धीरे आरती को आदत हो गई ,छुट्टियां मतलब पापा का साथ ,घूमना-फिरना, मौज-मस्ती,पर घर….हरगिज नहीं….।
आरती ज्यों-ज्यों बङ़ी होती गई उसकी व्यस्तताएं भी बढती गई।हर साल मिलने वाली स्कोलरशिप ने पढाई पर विराम नहीं लगने दिया।लगन, मेहनत व पापा के आशीष से वो एक डॉक्टर आरती और फिर एक सर्जन आरती के रूप में बाहर निकली।

जाने क्यों अब उसे अपनी माँ, अपना गाँव, अपना बचपन बहुत याद आने लगा था।

राधेश्याम ने उसे शहर में ही प्रेक्टिस करने की सलाह दी पर आरती नहीं भूली थी कि उसने माँ को गाँव में डॉक्टरों की कमी के कारण खोया था। वो गाँव में ही एक अस्पताल खोलना चाहती थी ताकि गाँव के लोगों को उसके डॉक्टर होने का फायदा मिल सके।

छोटी सी आरती को तो राधेश्याम हर बार किसी न किसी बहाने से गाँव आने से रोक लेता था ,पर अब डॉक्टर आरती को गाँव न आने देने का कोई मुनासिब तर्क वो नहीं ढूंढ पाया।आरती ने डॉ.सुधीर के साथ मिलकर गाँव में एक अस्पताल खोलने का निर्णय कर लिया था।

लगभग छहः महिने के अन्तराल में एक छोटा सा हॉस्पिटल बनकर तैयार था।शुभारंभ के दिन सुबह से तमाम व्यस्तताओं ,शुभकामनाओं और आशीषों का भार उठाते-उठाते शाम तक आरती निढाल हो चुकी थी।शाम को लगभग सात बजे होंगे कि एक दुबला-पतला युवक वॉचमैन की नौकरी के लिए आया।आरती थककर चूर थी।उसने उस युवक को कल आने के लिए क्या कहा कि वो चिल्लाने लगा- मैडम, क्या समझती हो अपने आपको,मैं सुबह भी आकर गया हूँ , डॉक्टर बनने का मतलब ये ना है कि आप किसी गरीब की इज्ज़त से खेलोगी।अरे , हमारा भी स्वाभिमान आहत होता है आपकी इन हरकतों से। सुबह आओ ….शाम को आओ….हम आपके गुलाम ना है…।

और आप आपको तो खुद के बारे में भी पता नहीं है….हिजङ़े की बेटी कहीं की….कहकर उसने बुरा सा मूँह बनाया और थूक दिया डॉक्टर आरती के सामने….।

डॉ.आरती तिलमिला उठी, क्या कहा….? हिजङ़े की बेटी….पीकर आये हो क्या….होश में तो हो ….हिजङा हो तूम, तुम्हारा बाप, तुम्हारा पूरा खानदान…हमेशा शांत रहने वाली आरती उठी और युवक की कॉलर पकङकर धक्का दे दिया ।

वो नौजवान गिरते-गिरते बचा ….।आरती का मन कर रहा था दो-तीन तमाचे लगा दे उसके मूँह पर ….देखा, तभी राधेश्याम आ गया था।जिसे देखते ही युवक हँसा और बोला- मुझे धक्का मारने से सच्चाई छुप नहीं जायेगी मैडम…पूछ अपने बाप से….।तुम्हारा बाप रोज घर से निकलने के बाद स्टेशन पर जाकर हिजङा बनता है ।ट्रेनों में घूमता है,मुसाफिरों के सामने तालियां ठोकता है, आशीषों की पोटली खोलता है और पैसों के लिए हाथ फैलाता है स्याला…झूठा कहीं का….किन्नर बनकर भावनाओं का खेल बरसों से खेल रहा है तेरा बाप….।सुबह से सांझ तक यही धंधा करता है, भीख माँगने का धंधा…जिन पैसों से तुमने पढाई की…रोटी खाई…कपङ़े पहने वो सब भीख थी भीख….थू….धिक्कार है ….भिखमंगे हिजङ़े की औलाद …और इतना गुमान….।

आस-पास भीङ़ इकट्ठा हो चुकी थी।आरती को लगा वो गश खाकर गिर पङ़ेगी।राधेश्याम का चेहरा सफेद पङ़ चुका था। जिस सच्चाई से जिंदगी भर भागता रहा….आरती को हमेशा दूर रखा वो आज इस रूप में सामने आएगी उसने तो सपने में भी नहीं सोचा था।

डॉ. सुधीर को भी लगा धरती-आसमान दोनों घूम रहे है …. एक कभी न खत्म होने वाला ऐसा भुकंप सामने था जो सब कुछ तबाह कर देगा ….पर स्वयं को संयत रखते हुए उसने उस नौजवान को बाहर का रास्ता दिखाया। बाहर निकलते हुए भी वो लगातार बोल रहा था- ये बेरोजगारी बङ़ी काइयां चीज होती है मैडम जी, भूख अच्छे- भले आदमी को हिजङ़ा बना देती है ।

डॉ. आरती और राधेश्याम दोनों उस रात सो नहीं पाए।

डॉ. आरती बचपन से अब तक की यात्रा करती रही कि कैसे पापा उसे गाँव आने से रोकते रहे।कैसे अपनी नौकरी,काम के बारे में बात करने से कतराते रहे, कभी वो पूछती तो हँसकर टाल जाते कहते- तुम्हें कुछ चाहिए तो बोलो बेटा, जमीन- आसमान एक कर दूँगा अपनी बिटिया के लिए….।आरती चुप हो जाती और धीरे-धीरे तो आरती ने पूछना ही छोङ़ दिया था।

क्या वो सचमूच भीख के पैसों से बङ़ी हुई है….? क्या वे सच में हिजङा हैं….? फिर किसकी बेटी है वो….? क्या वे पैसों के लिए नोंटंकी करते रहे हैं…?माँ की बीमारी के समय पापा की नौकरी छूट गई थी।क्या मजबूरी , पेट की आग, आरती की पढाई, घर की तंगी ने उन्हें हिजङा बना दिया।प्रश्नों के भँवर में उलझती आरती उस रात बहुत रोई।अपनी किस्मत को कोसा पर जब पापा के बारे में सोचा तो उसे उनका कोई कसूर नजर नहीं आया।

जो कुछ होना था हो गया।अब पापा को हिजङ़ा नहीं बनने देगी….बल्कि ऐसा हुनर देगी कि दुनिया नाज करेगी….इस संकल्प से आरती का मन शांत हो गया।सुबह होते-होते वो बहुत कुछ तय कर चुकी थी।

उधर राधेश्याम रात भर आत्महत्या के उपायों के बारे में सोचता रहा पर उसे लगा उसके पास इतनी हिम्मत नहीं कि आत्महत्या कर सके।उसने दूसरा रास्ता निकाला कि वो सन्यास लेकर आरती से दूर…. बहुत दूर …. हिमालय की गुफाओं में चला जाएगा।अपना मनहूस साया फिर कभी अपनी बच्ची पर नहीं पङ़ने देगा।

सन्यास के नाम पर उसे थोड़ी राहत मिली।उसने देखा है चोर-उच्चका, लुच्चा-लफंगा कोई भी यदि सन्यास ले ले तो उसके सारे पाप माफ हो जाते हैं। यहाँ तक की कुछ तो संसद में जनता के मसीहा बनकर पहूँच जाते हैं, कुछ मन्दिर-मस्जिद में भगवान के रूप में पूजे जाते हैं, आदमी चोला बदलते ही शैतान से भगवान की श्रेणी में आ जाता है।सारी दुनिया सन्यासी के सामने झूक जाती है ,फिर चाहे वो सन्यासी साधारण आदमी से भी गया-गुजरा क्यों न हो….। वैसे भी उसने कोई खून नहीं किया ,कहीं डाका नहीं डाला, कोई बेइमानी भी नहीं की , बस हिजङ़ा बनकर अपनी गृहस्थी की गाङ़ी को खींचा है, अपनी डूबती नैया को पार लगाया है।

राधेश्याम रात भर अपनी गुजरी हुई जिंदगी के पन्ने पलटता रहा।रह-रहकर उसको अपनी पत्नी सुमित्रा के साथ बिताए दिन याद आते रहे।सुखी गृहस्थी, समझदार पत्नी, अच्छी नौकरी और फूल सी बेटी आरती….।किसी को इससे ज्यादा क्या चाहिए जीने के लिए….पर हाय री किस्मत….सुमित्रा की बीमारी ,असमय मौत और नौकरी से निकाले जाने के पश्चात सिर्फ आरती ही थी जिसकी वजह से वो जिन्दा रहा पर उसकी परवरिश बहुत बङ़ी चुनौती थी। हाथ में फुटी कोङ़ी नहीं और बेटी को डॉक्टर बनाने की तमन्ना…।उसे सब कुछ गुङ़-गोबर हुआ जान पङ़ता था।रोजमर्रा का खर्च भी नहीं निकाल पा रहा था।तभी एक दोस्त ने उसे किन्नर बनकर ट्रेनों में घूमकर पैसा कमाने की सलाह दी,वो स्वयं भी यही काम कर रहा था।

उसे बहुत अजीब लगा, पर मजबूरी जो न कराये कम….इस नाटक को उसने नौकरी न मिलने तक करने का मन बनाया पर जब लंबे समय तक नौकरी नहीं मिली तो फिर कब यह नाटक आजीविका का साधन बन गया पता ही नहीं चला।

जब भी इस नाटक को छोङ़ने की बात सोचता आरती को डॉक्टर बनाने का सपना उसका रास्ता रोक देते।कमाई भी अच्छी हो रही थी तो धीरे-धीरे कमाई का यह जरिया उसे रास आने लगा।उसने सोचा था आरती को इस बारे में कभी नहीं बताएगा पर भविष्य के गर्भ में क्या छुपा है इसे तो सृजनहार ही जाने….।

पर अब आरती से दूर चला जाएगा।अपने कर्मों की परछाई उस पर नहीं पङ़ने देगा।वो सन्यास लेगा….हाँ, वो
सन्यास लेगा….सोचते हुए उसने दरवाजे की सांकल खोली तो देखा ,आरती सामने ही खङ़ी थी।

हे भगवान, जिससे भागना चाहता था वही सामने…..उसने हाथ जोङकर कहा- मेरी बच्ची मुझे माफ कर दे। मेरा तरीका गलत हो सकता है पर मेरा मकसद गलत नहीं था।कहते-कहते आरती के कदमों में बैठकर रो पङ़ा राधेश्याम।

आरती की आँखों से भी गंगा-जमुना बह निकली। दोनों की पर्वत सी पीर आज पिघलकर समन्दर बन रही थी।

हिचकियों के बीच आरती ने कहा- पापा आपको शर्मिंदा होने की कतई आवश्यकता नहीं।आपने जो कुछ भी किया जरूरत और मजबूरी के कारण किया,मेरे लिये किया पर अब आप जो भी करेंगे वो एक मकसद के खातिर करेंगे।

राधेश्याम ने आरती को प्रश्नवाचक निगाहों से देखा।

पापा, आपने अब तक किन्नर बनकर अपनी रोटी, कपङ़े और मेरी पढाई का मकसद पूरा किया।अब आपको उनके लिये काम करना है जो सचमुच किन्नर हैं। आप उन्हें पढ़ाएं-लिखाएं , जीवन के प्रति मोटिवेट करें और समाज में उन्हें सम्माजनक स्थान दिलाएं।आज से आप इस मकसद के खातिर अर्थपूर्ण जीवन जीएंगे ।मैं भी यथासंभव आपकी मदद करूँगी।

और मैं भी….पीछे से डॉक्टर सुधीर की आवाज आई।

राधेश्याम को तो जीवनदान के साथ- साथ एक मकसद भी मिल गया।कहाँ तो वो सन्यास और आत्महत्या जैसी बातें सोच रहा था और कहाँ आरती …..उसने तो कायापलट ही कर दिया उसकी सोच का….।

अब तक जिस किन्नर के किरदार को वो चोरी छिपे निभाता था, समाज के सामने जाने से डरता था, किसी अपने का सामना होने पर कतराता था….अब वो अपनी कहानी बङ़े चाव से सबको सुनाता , जिंदगी का फलसफा बयां करता।उसने गाँव के किन्नरों को पढ़ना शुरू किया।काफी मुश्किलें आई पर धीरे-धीरे कारवाँ बढता गया।जिनको पढाई रास नहीं आई उन्हें लजीज खाना बनाने की ट्रेनिंग दी जाने लगी।राधेश्याम के सिखाए कुछ व्यक्ति आस-पास रेस्टोरेंट में काम करके इज्ज़त की जिंदगी जीने लगे थे।कुछ गाँव के स्कूलों में सेवा दे रहे थे।राधेश्याम अब संतुष्टि भाव से जीवन बिता रहा था।

बेटी आरती ,दमाद सुधीर के साथ पिछले पंद्रह सालों से इसी काम में लगा हुआ है ।थर्ड जेंडर को पहचान दिलाकर एक सम्मान की जिंदगी देना और समाज की दया पर आश्रित इस कौम को समाज का हिस्सा बनाना ….काम आसन नहीं पर पूरी निष्ठा से कर रहा था राधेश्याम।बस तीन दिन पहले रात को सोया तो ऐसा सोया कि फिर उठा ही नहीं।

डॉ. आरती को नाज है अपने पापा पर।उसे विश्वास है सही तालीम,विश्वास और अपनापन दिया जाये तो समाज का कोई भी व्यक्ति नकारा नहीं रहेगा।एक किन्नर भी प्रकृति को झुकाकर समाज व देश की प्रगति में अपना योगदान दे सकता है, बहुत कुछ कर सकता है।

आरती उठी, अपनी आँखें पोंछी, पिता की तस्वीर के आगे खङ़े होकर आँखें बंद करके संकल्प लिया कि वो अपना कुछ समय समाज के इस उपेक्षित वर्ग के लिए लगाएगी।

उसने जब आँखें खोली तो ऐसा लगा मानो उसकी आँखों में सूरज उग आया हो।

डॉ पूनम गुजरानी

matruadmin

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