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देख दुपहरी जेठ की,हर कोई मांगत छाय।
माह मास में देखत इसे,मन ही मुस्काय।।
देख दुपहरी जेठ की,कोरोंना भी परेशान।
कुछ दिनों में टूट जाएगा,इसका भी अभिमान।।
देख दोपहरी जेठ की,आलू भी हुआ बेहाल।
पानी बिन उबल रहा,देखो गरमी की ये चाल।।
देख दोपहरी जेठ की,तरुवर भी अकुलाय।
पथिक तरु की छाय में बैठकर केवल मुस्काय।
देख दुपहरी जेठ की, टप टप बहे पसीना।
खाने को न कुछ दिल करत,मुश्किल है अब जीना।।
देख दोपहरी जेठ की,रहते इससे कोसो दूर ।
कैसे इसको दूर भगाए इससे है सब मजबूर।।
आर के रस्तोगी
गुरुग्राम
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