‘ज़मीन नहीं बन सकी
तो आसमान बन गई
यथार्थ से परे बस कल्पनाओं
का जहान बन गई….।।’
ऐसा होता तो होगा सबके जीवन में, नहीं तो यह ख़्याल यकायक उफ़ान नही उठाता ज़हन में। इस जीवन रुपी प्रयोगशाला में हम सभी की एक अपनी-अपनी ताख़ है,अलग-अलग आकार के कांच के मर्तबानों मे रासायनों से रखे हुए हैं। प्रयोग निरन्तर चालू है,कभी जलाकर,कभी तपाकर,कभी हल्के से घोलकर,कभी डूबोकर छोड़ दिया जाता है परीक्षण हेतु…।
हर दिन कुछ-न-कुछ नया बनता रहता है इस प्रयोगशाला में। मानवीय स्वभाव का सहज कौतूहल,हर कदम पर प्रकृति के गूढ़ रहस्यों से परदा हटाने का प्रयास करता है,ऐसा क्यों है? यह मोड़ कहाँ तक जाएगा? ऐसा करके देखते हैं,क्या होता है देखें तो ? आदि-आदि… की जिज्ञासा हमें एक बहुत बड़ी-सी परखनली में डाल देती है,जिसमें कहीं घुमावदार रास्ते हैं,तो कहीं पतली संकरी नली। कहीं हम अचानक से एक नली से एक गहरी बोतल में गिर जाते हैं और नीचे रखे परिस्थियों के बर्नर से निकलती आंच हमें पकाना शुरू कर देती है….। फिर चाहकर भी इस पेचीदा यंत्रजाल से निकलना असमंभव हो जाता है। फिर तो कौतूहल का जोश धुआं बन यंत्र की किसी नली से बाहर निकल जाता है और हमारा एक नया ही व्यक्तित्व आकार ले रहा होता है।
‘ओखली में सिर दिया तो मूसल के वार से क्या डरना ‘ वाले मनोभाव लिए एक वीर जुझारु सिपाही की तरह..वीर तुम बढ़े चलो,धीर तुम बढ़े चलो।।।।..हमारा यथार्थ हमें जला रहा होता है,एक पेचीदा यंत्र जाल में बुरी तरह फंस चुके होते हैं,परन्तु… यह हमारा खुद का कौतूहल था। खुद की जिज्ञासा थी, नई परतों को खोल ताका-झांकी करने की…अतः इस प्रयोग के अंतिम परिणाम तक हमें हर प्रतिक्रिया से गुज़रना ही पड़ेगा…।
यहाँ से कल्पनाओं का संसार जीवन की वैज्ञानिक प्रयोगशाला से परे अपना आसमान दिखाने लगता है…।एक बहुत विस्तृत-सा अशेष फैलाव,एक क्षितिज लिए,जो प्रकृति द्वारा निर्मित सबसे बड़ा मायाजाल है…मनुष्य की नज़रों का धोखा। आसमान छूने की चाह प्रबल हो जाती है इस क्षितिज रुपी मायाजाल को देखकर। लगता है,थोड़ा चलना ही तो है…फिर तो ज़मीन पर खड़े होकर दोनों बाँहों मे पूरा आसमान समेट लेंगें…मुस्कुरा उठी मैं यह वाक्य लिखकर……। कभी-कभी सत्य जानते हुए भी उस बात की कल्पना करना,जिसका वजूद ही नहीं,फिर भी हम उसे सोचते हैं..यह तथ्य मुस्कुराहट ला देता है।शायद ‘कल्पनाएं’ इसीलिए प्यारी लगती हैं…’परीलोक’ की परिकल्पना ऐसे ही तो आई। कहानियां इसी लिए तो दिल को छू जाती हैं,यदि उनमें हमारे जीवन से मिलता-जुलता एक सामान्य-सा अंश भी हो। जीवन की वास्तविकताओं से दो-दो हाथ करने की ताकत ‘काल्पनिक जगत’ से ही मिलती है। ‘बेतार का तार’ एक तार है जो जोड़े है,दिखता नहीं….है भी और नही भी। ‘वेन डायग्राम’ सब कुछ एक छल्ले से दूसरे छल्ले कड़ीबद्ध हैं भी और नहीं भी।
ऐसा कोई नहीं, जो जीवन की प्रयोगशाला के जटिल यंत्र में न फंसा हो,ऐसा मुझे लगा। हो सकता है कोई अपवाद भी हो,कुछ भी दावे के साथ नहीं कहना चाहिए,क्योंकि ज़िन्दगी बस उतने ही घेरे में सीमित नहीं है, जितनी आपकी दृष्टि देख पाती है। चमत्कार और आश्चर्य भी यहाँ देखने को मिलते हैं। यहाँ विज्ञान बस अवाॅक-सा मुहँ बाये खड़ा रह जाता है…। हाँ तो मैंकह रही थी कि-कुछ अपवादों,आश्चर्यों एंव चमत्कारों को छोड़ सभी को इस जटिल यंत्र में अपने कौतूहल के वशीभूत होकर फंसना पड़ता है…एक बार जो फंसे भइय्या,,,,,,तब तो रासायनिक समीकरण झेलना ही पड़ता है। फिर ओटू,एचटूओ या और कुछ बनने तक पकते रहो..घूमते रहो..गिरते रहो..और दिल को बहलाने के लिए कल्पनाओं के आसमान पर उड़ते रहो।
नए सपनों की परिकल्पना करो..रोज़ नए ‘परीलोक’ की सैर करो..। कोई एक उम्मीद लेकर ही कौतूहल जागा होगा,जिसने हमें परखनली मे कूद जाने को उतावला कर दिया होगा..उस उम्मीद की सुनहरी तस्वीरें आसमान पर खींचते रहिए..मिटाते रहिए..रंगते रहिए..।
इस तरह हममें एक रचनात्मकता का अंकुर फूटने लगता है। यह एक मूक संदेश है जीवन का हमारे नाम। जो हमें कुछ सम्भावित सम्भावनाओं के टूटकर बिखर जाने पर खुद को टिकाए रखने के लिए एक सहारा सिद्ध होने वाली होती है।
आह,लगता है मेरा यह लेख भी आसमान-सा विस्तृत होने वाला है, पर तो मैं तो विराम लगा सकती हूँ क्योंकि, यह मेरे वश में है…परन्तु उन्मादी विचारों पर विराम लगा पाना मेरे वश में नहीं है। मैं भी प्रयोगशाला के जटिल यंत्र में फंसी हूँ। प्रयोग प्रक्रिया चालू है और मैं कल्पनाओं के आसमान पर..यथार्थ से परे कुछ ‘परीकथाएं’ लिख रही हूँ।
#लिली मित्रा
परिचय : इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर करने वाली श्रीमती लिली मित्रा हिन्दी भाषा के प्रति स्वाभाविक आकर्षण रखती हैं। इसी वजह से इन्हें ब्लॉगिंग करने की प्रेरणा मिली है। इनके अनुसार भावनाओं की अभिव्यक्ति साहित्य एवं नृत्य के माध्यम से करने का यह आरंभिक सिलसिला है। इनकी रुचि नृत्य,लेखन बेकिंग और साहित्य पाठन विधा में भी है। कुछ माह पहले ही लेखन शुरू करने वाली श्रीमती मित्रा गृहिणि होकर बस शौक से लिखती हैं ,न कि पेशेवर लेखक हैं।
सूंदर रचना ।अच्छा है लिखिए परीकथाएं।बधाई।