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किसी भी राज्य अथवा क्षेत्र का अतीत जानने के लिए उसका प्रगैतिहासिक इतिहास को जाना होगा , क्षेत्र मे विद्यमान पुरातात्विक अवशेषों और शीलाखण्डों को करीब से निहारना होगा । शीलाखण्डों से ताल्लुकात रखने वाले तथ्यों की तथ्यात्मक तथ्य और कथानक के संदर्भित संदर्भों को पढ़ना होगा और अध्यन के साथ गुढ़ चिंतन करना होगा । इसके पश्चात ही हम किसी निर्णय पर पहुंच सकते है । प्रागैतिहासिक का अर्थ है इतिहास लिखने की पूर्व की स्थिति यानि प्री-हिस्ट्री । सरगुजाअंचल में ऐसे बहुत सा पुरातात्विक स्थल है जिसका लिखीत इतिहास आज भी विद्यमान नहीं है । लोकवाणी और दंतकथाओं के आधार पर कुछ तथ्य प्रकाशित होते है पर उसका संयोजन या संग्रहण नहीं है । इसलिए लोग पुरातात्विक शीलाखण्डों को देख कयास लगातें है । ऐसा ही रहस्यमय बातें रामगढ़ पर्वत पर विद्यमान पुरातात्विक स्मृतियों के संदर्भ में लोग करतें है । इस पर्वत पर विद्यमान पुरातात्विक स्मृति स्वरूप शीलाखण्डों पर अनेकों विद्वानों ने शोधपत्र, शोधग्रंथ लिख चुके है । जिसके आधार पर प्रतिवर्ष रामगढ़ महोत्सव का आयोजन किया जाता है । इस आयोजन मुख्य गतिविधि “राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी” है । जिस के लिऐ प्रशासन द्वारा शोधकर्ताओं को आमंत्रित किया जाता है । और शोधार्थी शोधपत्र का वाचन करतें है । बिते दो बर्षो से स्थानीय कवियों और साहित्यकारों के सहयोग से कवि सम्मेलन भी होने लगा है ।
पर अब यह आयोजन धीरे धीरे खानापूर्ति के ओर अग्रसर हो रहीं है । यह बातें सिर्फ मै ही नहीं कह रहा हूँ , आयोजन में सहभागी साहित्यकार भी कहे । कुछ समाचार पत्रों में भी ऐसी बातें प्रकाशित हुई । कारण जो भी हो राज्य के वित्तीय स्थिति के विषय में स्थानीय जनमानस अनभिज्ञ है पर आयोजन में कुछ उदाशीनता दिखी । सहभागी साहित्यकार भी कुछ ठगा ठगा सा महसुस किया । एक विशेष रिपोर्ट जनमन के पटल पर प्रस्तुत है ।
बितें चार दसकों से “रामगढ़ महोत्सव” का आयोजन जिलाप्रशासन सरगुजा के तत्वावधान में राज्यशासन के निर्देशानुसार किया जा रहा है । आयोजन का स्मृति स्वरूप विद्वानों का मत है कि भगवान श्री राम वनवास के कुछ पल सरगुजा में बितायें थे । तथा आदिकालीन महाकवि कालिदास सरगुजा के रामगढ़ के पहाड़ी पर बैठकर “मेघदूतम” महाकाव्य का सृजन किया था । जिसके संदर्भित संदर्भ का प्रचार प्रसार स्व. भास्कराचार्य जी ने किया । उस समय अविभाजित मध्यप्रदेश सरकार ने भी उन तथ्यों को माना और इस आयोजन के लिए बजट का प्रावधान कर दिया गया । भास्कराचार्य के पूर्व भी कई विद्वानों ने भी अपने शोधात्मक पुस्तक में इन तथ्यों की पुष्टि की है । जिसमें सागर विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग के प्राध्यापक डाँँ. कृष्ण कान्त बाजपेयी ने 1983 में इस स्थान का गहन निरीक्षण और अध्ययन किया और उनके मतांंनुसार इसी स्थान पर कालिदास ने बैठकर मेघदूतम की रचना की है । इसीप्रकार 1948 में करण भाउसले महोदय इस स्थल का अध्ययन किया । इस पर्वत पर विश्व की सबसे पुरानी नाट्यशाला है जिसका खोज करण आउसले महोदय ने किया था जैसा की उलेख मिलता है । तथ्यों के तथ्यात्मक तथ्य का रेखांकन में श्री वेजलर, डाँ. हीरालाल, डाँ. बलदेव प्रसाद मिश्र, श्री समर बहादुर सिंह देव , श्री एस. बैक्टामैया आदि विद्वानों का नाम आता है । इन विद्वतजनों ने संदर्भित संदर्भ देकर उपरोक्त तथ्यों की पुष्टि की है ।
अंग्रेजी का एक शब्द है ACSM जिसका अर्थ होता है ए–एडवोकेसी यानी मुद्दा आधारित पैरवी, सी–कम्निकेशन, यानी संम्वाद सम्प्रेषण, एस.एम– सोशल मोब्लाईजेशन यानि सामाजिक संदग्ध्दता । इस थ्योरी का उपयोग श्री भाष्कराचार्य जी ने बड़े सुन्दर ढ़ग से किया । जिससे उस समय के तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार और पुरात्वविदों तथा इतिहासकारों ने माना कि सरगुजा का उदयपुर तहसील में स्थित रामगढ़ पर्वत वही पर्वत है जो मेघदूतम में वर्णित रामगिरी है । और जब मध्यप्रदेश शासन का मोहर लग गया । रामगढ़ महोत्सव के नाम से आयोजन के लिए राज्य शासन से विशेष धनराशि का प्रावधान भी हो गया । तब से आज तक रामगढ़ महोत्सव आयोजन होता रहै ।
छत्तीसगढ़ में यह एकलौता आयोजन नहीं है ऐसे कई आयोजन है जिसके लिऐ राज्य शासन धनराशि उपलब्ध कराती है जैसे — मैनपाट महोत्सव, तातापानी महोत्सव , भोरमदेव महोत्सव , राजिम महोत्सव आदि । जिसमें राज्यस्तरीय और राष्ट्रीय ,अंतरराष्ट्रीय स्त्तर के कलाकारों को शासन बुलाकर उनका आवभगत करती है । पर रामगढ़ महोत्सव पर प्रशासन की उदासीनता समझ से परे जान पड़ता है । प्रश्न अनेकों है जिसके संदर्भ में समाचारपतत्रों में प्रकाशित भी हुआ है ।
* शोधार्थियों के द्वारा शोधपत्रों का वाचन तो होता है तालियां बजती है । शोधकर्ताओं को प्रमाण पत्र बंटता है । कभी कभी स्मृति चिन्ह भी । पर उस शोधपत्रों का शासन क्या करती है इस तथ्य से शोधार्थी और आमजन अनभिज्ञ है । शोधपत्रों का मूल्यांकन क्या कभी प्रशासन विद्वानों से कराती है या उसे समीक्षार्थ कहीं भेजती है या नहीं ।
* यदि सभी शोधार्थियों का शोधपत्र निराधार है तो प्रति वर्ष ऐसा औपचारिकता पुरा करने से आमजन और शासन को क्या लाभ है ।
* कहने को तो यह राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी है पर ज्यादातर शोधार्थी सरगुजा के रहतें है । पिताधर्म निभाने केलिऐ स्व.भास्कराचार्य जी के पुत्र वेदाचार्य डाँ. निलिम्पन त्रिपाठी जी भोपाल से आ जातें । वो विद्वान भी है । दुसरे विद्वान अभनपुर निवासी छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध लेखक श्री ललित शर्मा जी आतें है । और तिसरा नाम …… सभी सरगुजाअंचल के बहुतायत संख्या में शोधार्थी । दुसरे राज्य के प्रतिभागी का नाम ही नहीं है । ऐसे में राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी नाम देना भी हास्यास्पद लगता है ।
*** सुझाव —-
* राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी के लिऐ समीपवर्ती विश्वविद्यालयों को एक माह पूर्व ससम्मान पत्र प्रेषित हो, और देश के प्रख्यात पुरातत्वविद्वो को भी आमंत्रित किया जायें ।
* आयोजन से पाँच रोज पूर्व प्राप्त शोधपत्रों का समिक्षा हो , विद्वानों का अभिमत लिया जाय , उसके वाद शोधपत्र वाचन हेतू शोधार्थियों को अनुमति दिया जाय । और श्रेष्ठ शोधपत्रों की पुष्टि कर पुस्तिका बनें । जिसका शासन विमोचन करवाये ।
* विमोचित पुस्तिका को सरगुजाअंचल के सभी पुस्तकालयों में वितरित किया जायें ।
* शोध के विषय में सरगुजाअंचल के समीपवर्ती सभी पुरातात्विक स्थलों को भी सामिल किया जाय ।
* शोधपत्र लेखन में समय और धनराशि लगता है । टायपिंग कराने में शोधार्थियों का पैसा खर्च होता है । इसलिए प्रोत्साहन स्वरूप उन्हें कुछ राशि प्रदान करना चहीऐ । 2018 और 2019 में प्रति शोधार्थियों को दो -दो हजार रु. प्रोत्साहन स्वरूप दिया गया था । जो इस बार 2019 में नहीं दिया गया । यह प्रशासन या राज्य की वित्तीय स्थिति पर निर्भर करता है ।
* प्रमाण पत्र पहले भी दिया जाता रहा है और अब भी । पहले जो प्रमाण पत्र दिया जाता था उसमें सरगुजा की प्रकृतिक रमणीयता की झलक के साथ महाकवि कालिदास का सचित्र रहता था … वह धीरे-धीरे गायब होता चला गया । इस बार तो अतिसाधारण था । प्रमाणपत्र में जिलाधीश का हस्ताक्षर रहता है और शोधार्थी इसे फ्रेमिंग कराकर बैठक कक्ष मे सुसज्जित करतें है । इसलिए प्रमाण पत्र गुणवत्ता पूर्ण होना चाहिए ।
इसीप्रकार कविसम्मेलन का भी स्वरूप बनें । जैसे राजभाषा आयोग का आयोजन होता है उसी प्रकार रामगढ़ के स्मृति स्वरूप कविसम्मेलन हो । सरगुजाअंचल के साहित्यकारों को भी प्रोत्साहन मिलें , ऐसा प्रशासन को विचार करना चाहीये ।
भोरमदेव महोत्सव हो या राजिम महोत्सव अथवा समीपवर्ती जिला का तातापानी महोत्सव सभी महोत्सवों का महत्व जनमानस से जूड़ा हुआ है । स्थानीय साहित्यकार और कलाकारों को प्रोत्साहित करने का शासन का अभिननव पहल और सुअवसर है ।
सरगुजाअंचल के साहित्यकार साकारात्मक सोच रखतें है । कुछ साहित्यकारों ने कहा रामगढ़ महोत्सव का आयोजन सरगुजा का धरोहर स्वरूप है । हम हर वर्ष सहभागी होगें , प्रशासन यदि प्रोत्साहन राशि देती है तो स्वीकार है अन्यथा निःशुल्क सेवा देगें । यह सरगुजा के आंगन की शोभा है । पुरे छत्तीसगढ़ को राष्ट्रीय स्त्तर पर पहचान दिलाने वाला यह एकलौता स्थान है ।
#राज नारायण द्विवेदी (समाजसेवी)
* शिक्षा — स्नातक कला (प्रतिष्ठा –भूगोल)
* कार्यक्षेत्र :– छत्तीसगढ़ के विभिन्न जिला – बलरामपुर, सरगुजा , सुरजपुर, कोरिया, जशपुर रायगढ़ (समाजसेवी संस्थाओं के साथ — रायगढ़ अम्बिकापुर हेल्थ ऐसोसिएशन– राहा, केयर इंडिया, युनिसेफ छत्तीसगढ़, नेशनल इंलेक्सन वाँच ,छत्तीसगढ़ वोलेंटियर हेल्थ एसोसिएशन 2001 से …..)
* जन्म स्थान — ग्राम — हरला ,थाना — सोनहन जिला — कैमुर भभुआ (बिहार)
* वर्तमान निवास एवं कार्यक्षेत्र — अम्बिकापुर, जिला — सरगुजा (छत्तीसगढ़)
* अभिरुचि – समाजसेवा , साहित्यिक गतिविधियां
* लेखन विधा — शोधात्मक तथ्यों का लेखन , संस्मरण लेखन , कहानी लेखन , समिक्षात्मक लेखन
साहित्यिक एवं सामाजिक संगठनों से सम्बंध —
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* हिन्दी साहित्य परिषद सरगुजा — मिड़िया प्रभारी
* महामना मालवीय मिशन सरगुजा – कोषाध्यक्ष
* अरविंदो सोसायटी अम्बिकापुर – सःसचिव
* संस्कार भारती सरगुजा — मिडिया प्रमुख
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